भारत में इतने अध्यात्म के बावजूद इतनी दुर्दशा क्यों?

दो-तीन बातें हैं: पहली बात तो अध्यात्म संख्या का खेल नहीं है कि सौ या पांच सौ गुरु हो गए तो ज्यादा संतोषजनक स्थिति हो जाएगी। यहाँ पर “इनपुट इज प्रपोर्शनल टू आउटपुट (इनपुट आउटपुट के लिए आनुपातिक है)” नहीं चलता। फैक्ट्रियों में ऐसा होता है कि पाँच मशीनें और लगा दीं तो आउटपुट बढ़ जाता है। अध्यात्म में ऐसा नहीं होता कि पाँच गुरु और लगा दिए तो आनंद बढ़ जाएगा या मुक्तजनों की तादाद और बढ़ जाएगी। ऐसा नहीं है।

एक काफी होता है। मानवता के इतिहास को अगर आप देखेंगे, तो आप नहीं पाएंगे कि कभी भी ऐसा हुआ हो कि एक ही समय में और एक ही जगह पर १00-२00 ज्ञानी गुरु घूम रहे हों। कितने गुरु हैं? यहाँ मत गिनिऐ। गुरु की गुरुता अगर जाननी हो तो उसका उसके शिष्यों पर प्रभाव क्या पड़ रहा है, यह देखिए।

गुरु का परिचय और उसकी पहचान, उसका प्रभाव है। गुरु कोई पदवी या तमगा नहीं है। गुरु वो जिसके होने से शांति आती हो, समझ आती हो, रोशनी आती हो। अगर आप कह रहे हैं कि गुरु तो इतने हैं लेकिन शांति नहीं है, समझ नहीं है, रोशनी नहीं है, तो इसका मतलब वो गुरु है ही नहीं। बात खत्म। यह ऐसी ही बात है जैसे आप कहें कि इस भवन में इतने सारे बल्ब लगे हुए हैं फिर भी रोशनी बिल्कुल नहीं है, इसका अर्थ यह हुआ कि जो कुछ लगा हुआ है, वह सब व्यर्थ है। उसको फिर आप रोशनी देने वाले उपकरण का नाम ही मत दीजिए।

गुरु रोशनी देने वाला उपकरण है। वह गुरु कहलाएगा ही तब जब वह रोशनी देता हो। रोशनी नहीं दे रहा तो गुरु कैसा? कबीर साहब से आप पूछेंगे तो वह कहेंगे: गु अंधियारा जानिए, रू…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org