भक्ति का आधार क्या है?

जलि थलि महीअलि भरिपुरि

लीणा घटि घटि जोति तुम्हारी

~ नितनेम

जल में, थल में, आकाश में तुम सब सर्वस्व विद्यमान हो। जल, थल आकाश तुम ही विद्यमान हो। तुम्हारा प्रकाश हर हृदय में है।

वक्ता: सवाल यह है कि ‘तुम’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, ‘तुम्हीं विद्यमान हो,’ ‘तुम्हारी ज्योति है’; तो किसी बाहरी का नाम लिया जा रहा है तुम कह करके। अपने से अलग किसी की ओर इशारा किया जा रहा है, तो मूर्तिपूजा भी ठीक हुई? प्रश्न यह है कि फिर तो मूर्ति पूजा भी ठीक हुई अपने से बाहर किसी की उपासना करना?

‘तुम’ कहा जा रहा है; विधि है, तरीका है। भक्ति तुम कहते-कहते अंत नहीं हो जाती। भक्ति का अंत क्या है? ‘तुम’ और ‘मैं’ एक हुए। मैं तुम हुआ, तुम मैं हुए, उसी हो फ़ना कहते हैं, उसी को योग कहते है, विलय, संयोग, मिलन। तो भक्ति विधि भर है और बड़ी ईमानदारी की विधि है। भक्ति कहती है, ‘’जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं अभी तो अपने मन से पूरी तरह जुड़ा हुआ हूँ। और मुझे जो बताया गया, मुझे जिसका एहसास मिलता है, मुझे जिसकी हल्की-हल्की झलक भर मिलती है वो मुझसे इतना जुदा है कि मैं उसे ‘मैं’ नहीं कह सकता। अहम् कह पाना बड़ा मुश्किल है मेरे लिए। तो ईमानदारी की बात तो ये है कि अभी मैं उसे अपने से अलग ही कुछ समझूंगा, तो ही कुछ कहूँगा। मैं अहंकार से भरा हुआ हूँ, वो पूर्ण है। मैं विकारों से भरा हुआ हूँ, वो निर्विकार है। मैं खण्डित हूँ, वो अखंड है। मैं रूप में हूँ, वो अरूप है। मैं सीमित हूँ, वो असीम है। तो मैं ‘उसे’ ये कैसे कह दूँ कि वो मैं हूँ।’’ बात समझ आ रही है?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org