ब्रह्म को कैसे जानें?

‘ब्रह्म को देखने’ से आशय है कि — तुम्हारी आँखें अब व्यर्थ चीज़ों को इतना कम मूल्य देती हैं कि वो व्यर्थ चीज़ें दिखाई ही नहीं देतीं।

तुम्हारी आँखें अब व्यर्थ चीज़ों को इतना कम मूल्य देती हैं कि वो व्यर्थ चीज़ें दिखाई देकर भी दिखाई नहीं देतीं। ये है ब्रह्म को देखना।

अस्पताल में तुम्हारा कोई मित्र अभी-अभी भर्ती किया गया हो क्योंकि दुर्घटना हो गयी है और हालत गंभीर है। अभी-अभी खबर आयी है कि दुर्घटना हुई है, आओ। और तुम चलते हो गाड़ी लेकर के। रास्ते में फलों की दुकानें लगी हैं। सेब दिखाई देते हैं? अंगूर दिखाई देते हैं? अनार दिखाई देते हैं? स्त्री दिखाई देती है? पुरुष दिखाई देता है? कुछ दिखाई देता है? भीड़ को चीरते हुए तुम अस्पताल की ओर जाते हो। बाकी सब ‘दिखकर भी’ नहीं दिख रहा। ये है ब्रह्म को देखना।

बाकी सब कुछ दिखता तो है, पर ‘दिखता’ नहीं। बाकी सब कुछ दिखता तो है, पर उसको हम हैसियत नहीं देते, मूल्य नहीं देते। क्योंकि जो अमूल्य है, हम सीधे उसी की ओर बढ़े जा रहे हैं।ये है ब्रह्म को देखना।

कुछ ऐसा दिख गया है हमें, आँखों से नहीं, भीतर से।

कुछ ऐसा दिख गया है हमें, जिसके सामने बाकी सब दृश्य, सब नज़ारे, मूल्यहीन हैं। उसको देखने के बाद, इधर-उधर देखने की इच्छा ही नहीं होती। ये है ब्रह्म को देखना।

अब कुछ आँखों के सामने भी आ जाये, तो दिखाई नहीं देता।

‘ब्रह्म को जानने’ से आशय है — दुनिया को जान लेना और दुनिया को जानकर के मिथ्या पा लेना। जब दुनिया मिथ्या हो गयी, तो ब्रह्म को जान…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org