ब्रह्मलीन होने का अर्थ क्या है?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आज के पाठ से अध्ययन का आनंद हुआ। कैसे हुआ, किसे हुआ, यह नहीं कह सकते, बस आनंद ही था। जब हम केवल ब्रह्म-अनुभूति में रम जाते हैं, मन अमन होता है, तब भी संसार का व्यवहार तो द्वैत में ही होगा, मान्यताएँ भी होंगी, वृत्तियाँ भी होंगी। तो मुक्त कौन होगा जब बंधन ही नहीं है?

इस संसार का भोग करते हुए, ब्रह्म में निष्ठा रखते हुए जीना सहज है व आनंदपूर्ण है। सारे ही सवाल इस एक बात पर ख़त्म हो जाते हैं कि सब ब्रह्म है। जानने वाला, क्रिया, कर्ता, भोक्ता, सब ब्रह्म ही है। कहीं भी जो कुछ हो रहा है, सब कुछ ब्रह्म ही है। अहोभाव! धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद!

आचार्य प्रशांत: सारे सवाल किसी जवाब पर नहीं ख़त्म होते। सवाल बस यूँ ही ख़त्म होते हैं। जब तक कोई जवाब शेष है, उसके बाद अगला सवाल खड़ा होना पक्का है, भले ही उस जवाब में ब्रह्म सम्मिलित हो। जवाबों को ख़त्म होना पड़ेगा, यहाँ तक कि ब्रह्म को लिए हुए जो जवाब हैं, उन्हें भी ख़त्म होना पड़ेगा।

ब्रह्म को आया, उतरा तब जानिए जब ब्रह्म स्वयं ही विलीन हो जाए। जब तक ब्रह्म की ज़रा भी धारणा है, आशा है—चाहे ब्रह्म में निष्ठा ही है—तब तक ब्रह्म से मन की एक काल्पनिक दूरी बनी हुई है।

ब्रह्म का कोई उपयोग नहीं है। ब्रह्म का आप इतना सा और यह उपयोग भी नहीं कर सकते कि ब्रह्म को किसी प्रश्न के उत्तर के रूप में प्रयुक्त कर लें, वो भी संभव नहीं हो पाएगा। संभव होता दिखेगा ज़रूर क्योंकि ब्रह्म की धारणा भी बड़ी बलवती है। कितने ही सवालों का बौद्धिक समापन हो जाएगा ज्यों ही आप ब्रह्म की धारणा को प्रयुक्त करेंगे—बौद्धिक समापन; पूर्ण विसर्जन नहीं, पूर्ण अंत नहीं। ब्रह्म को भी खत्म होना होगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org