बोध खरीदा नहीं जाता
आचार्य प्रशांत: छात्रों से अब यह बात कह रहा हूँ। तुम्हें शिक्षक से ऐसे नहीं मिल पायेगा कि तुम वहाँ यह सोच कर जाओ कि देखो मैं तो छात्र हूँ, कॉलेज की फीस देता हूँ, कॉलेज ने कोर्स चलाया है, तो मैं ज्ञान खरीदने जा रहा हूँ। ऐसे नहीं मिल पायेगा। समझ में आ रही है बात?
इस तरीके से तुम्हें विज्ञान का ज्ञान मिल सकता है, गणित का ज्ञान मिल सकता है, भौतिकी का ज्ञान मिल सकता है, पर जीवन का ज्ञान तो गुरु से ही मिलता है। और वहाँ पर रवैया बिल्कुल दूसरा रखना होता है, बिल्कुल ही दूसरा रखना होता है।दूसरी ओर गुरु का भी दायित्व है ये देखना कि शिष्य को उससे घृणा ही न हो जाये। और शिष्य को भी ये देखना है कि गुरु-गुरु होता है।
असल में जबसे शिक्षा व्यवसाय बनी है, तब से तुम छात्रों को लगने लग गया है कि हर कोई बिकाऊ है। तुमको लगने लग गया है कि तुम जो कोर्स कर रहे हो, वो तुमने खरीदा है कुछ पैसे दे कर। तुम सोचते हो कि हमने पैसे दिए हैं इसलिए हमें ये कोर्स कराया जा रहा है। तो कहीं न कहीं मन में ये बात बैठी हुई है कि हमने ये कोर्स ‘ख़रीदा’ है। ये गुरु नहीं, विक्रेता है जो हमें सेवा-प्रदान कर रहा है। गुरु सेवा-प्रदाता नहीं होता। गुरु तुम्हें सेवा-प्रदान करने नहीं आया है।
मैं फिर से कह रहा हूँ कि विज्ञान का शिक्षक विक्रेता हो सकता है, जीवन-शिक्षा का शिक्षक विक्रेता नहीं, गुरु होता है। और तुम अगर ये नज़रिया रख कर सेशन में जाओगे कि वह शिक्षक आया था और मुझे उसकी प्रतिपुष्टि(फीडबैक) देनी है, कि हम उनके पढ़ाने का मूल्यांकन करेंगे, तो उससे तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा।