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बेबसी का रोना मत रोओ, अपने स्वार्थ तलाशो

प्रश्नकर्ता: गुरु द्रोण की स्थिति और विवशता को मैं अपने जीवन से जोड़कर देख रहा हूँ। वे जानते हैं कि सच क्या है, फिर भी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अन्य लोभों के कारण कौरवों के साथ हैं। युद्ध के समय जब दुर्योधन बार-बार उन्हें जली-कटी सुनाकर उकसाता है तो वह अपने प्रयास में सफल भी हो जाता है। यह तब है जब द्रोणाचार्य को यह अवगत है कि वे ग़लत के साथ खड़े हैं।

मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। पिछले बारह सालों से नौकरी कर रहा हूँ, चार साल विवाह के भी हो गए। दिक़्क़त वहीं-की-वहीं है, बल्कि और बढ़ गई है। मन शांत नहीं रहता। क्यों कर रहा हूँ वह जो कर रहा हूँ?

नौकरी करता हूँ, धन कमाता हूँ, अपने-आपको बेचता हूँ और दूसरी तरफ़ सारे तथाकथित रिश्ते निभाता रहता हूँ। यही सब करते-करते एक दिन चला जाऊँगा। अध्यात्म की ओर हमेशा से रुचि रही है, और अब और बढ़ रही है। अध्यात्म की दिशा में जाने हेतु प्रयासरत हूँ। मगर ये रिश्तेदार मेरी जान खाए पड़े हैं, मेरी जन्मपत्री लेकर पंडितों को दिखा रहे हैं, कह रहे हैं कि यह लड़का हाथ से निकल रहा है।

क्या करूँ, बड़ी विकट परिस्थिति है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: नात-रिश्तेदारों को जो करना है, वो कर रहे हैं। तुम क्यों परेशान हो? ये तो सवाल रिश्तेदारों को करना चाहिए कि क्या करें, ख़तरा उनको अनुभव हो रहा है। तुम्हारी क्या परेशानी है, यह बताओ न।

तुम कह रहे हो कि तुम अध्यात्म की ओर बढ़ रहे हो, तो बढ़ते रहो। तुमने परेशानी का आविष्कार कैसे किया?

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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