बेईमान को ज्ञान नहीं, डंडा चाहिए

बेईमान को ज्ञान नहीं, डंडा चाहिए

प्रश्नकर्ता: मेरी दूसरों पर निर्भरता बहुत है। अगर दूसरे लोग मेरे प्रति अप्रिय व्यवहार करते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है। यदि किसी का कहा ना मानूँ तो वह व्यक्ति नाराज़ हो जाता है और इससे मैं बहुत प्रभावित हो जाता हूँ। तो ये जो दूसरों से बंधन है इससे मुक्ति की शुरुआत कहाँ से करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये बुरा लगेगा तो छोड़ दोगे। कोई ऐसा नहीं होता जो अपनी दृष्टि में सुख के विपरीत कोई काम करे। हाँ, दूर से आप देख कर कह सकते हैं कि ये आदमी बेवकूफ़ी कर रहा है, ये जो करने जा रहा है उससे दुःख पाएगा। लेकिन जो आदमी आपके दृष्टि में बेवकूफ़ है, अपनी दृष्टि में तो सुख की तरफ़ ही बढ़ रहा है। बढ़ रहा है न? तो तुम भी अगर दूसरों से इस तरह उलझते हो, उनकी कही बात को इस तरह से लेते हो, आहत होते हो, तो इन सब में सुख पा रहे हो। जब इन सब में सुख मानना छोड़ दोगे तो अपने-आप इससे मुक्त हो जाओगे। तुमने कोई मुझे पूरी बात थोड़े ही बताई है, ये तो बता ही नहीं रहे हो कि ये सब जो करते हो, इसमें मज़ा क्या मिलता है।

प्र: उनकी संगति का एक सेंस ऑफ़ कम्पैनियनशिप (साहचर्य की भावना), एक सेंस ऑफ़ कंपनी (संगत की भावना) मिलती है।

आचार्य: जब दिख जाएगा ये जो मज़ा ले रहे हो, इसमें मज़ा कुछ नहीं है, इसमें मौत है, इसमें ज़हर है, इसमें सज़ा है तो ख़ुद छोड़ दोगे। देखो तो सही उस बात को। ये अपने चुनाव की चीज़ें होती हैं। मैं इसीलिए बहुत विधियाँ आदि बताने का समर्थक नहीं रहता।

तुम्हारे सामने कोई चीज़ रखी हुई है, मान लो ये रुमाल। आँखें हैं तुम्हारे पास, मैं जानता हूँ, लेकिन तुम बेईमानी करके…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org