बुद्धि नहीं, बुद्धि का संचालक महत्वपूर्ण है

प्रश्नकर्ता: बुद्धि परा प्रकृति है। तो अब यह कैसे जानें कि इस समय जो हम सुन या समझ रहे हैं तो मेरी बुद्धि किस दिशा में है? इस समय स्थिति ऐसी है कि डर भी लग रहा है, आगे कुछ ज़्यादा समझ नहीं आ रहा है और बेचैनी भी रहती है।

आचार्य प्रशांत: बुद्धि भी प्रकृति के ही अंतर्गत आती है, इससे बुद्धि की उपयोगिता कम थोड़े ही हो गई। कृष्ण कह रहे हैं, अपरा प्रकृति है और परा प्रकृति है। फिर आप चौंक जाते हैं जब वो इन्हीं दोनों प्रकृतियों में बुद्धि को भी, अहंकार को भी शामिल कर लेते हैं, क्योंकि आमतौर पर हमारा मानना यह होता है कि हम तो प्रकृति से कुछ आगे के हैं, अपने-आपको 'पुरुष' कहलाना चाहते हैं।

कृष्ण झटका दे देते हैं, वो कहते हैं, “नहीं, साहब, जैसे नदी, पेड़, पानी, जड़-चेतन, सब जीव हैं, वैसे ही दुनिया में हर जगह भौतिक खेल ही चल रहा है, रसायनों की ही क्रिया-प्रतिक्रिया मात्र है, उसी तरीके से बुद्धि भी है। ये तो आप सोच ही न लें कि बुद्धि चैतन्य है; बुद्धि भी जड़ पदार्थों का एक रुप ही है बस।”

अब यह बात अहंकार को बड़ी चोट देती है, क्योंकि आदमी अपनी बुद्धि के साथ बड़ा तादात्म्य रखता है। बुद्धिमान कहलाना गौरव की बात होती है न? किसी को बोल दो कि तुम बदसूरत हो और किसी को तुम बोल दो कि तुम बेवकूफ़ हो, ज़्यादा बुरा कौन मानता है? क्योंकि हमारा बुद्धि के साथ बड़ा तादात्म्य रहता है।

ये तो यही है कि तुम किसी को बोल दो कि तुम बेईमान हो, उसको थोड़ा बुरा लगेगा और किसी को बोल दो कि बेवकूफ़ हो, तो उसको ज़्यादा बुरा लगेगा, क्योंकि बुद्धि के साथ हमारा बड़ा गौरव जुड़ा है, ईमान के साथ कहाँ उतना! अक्लमंद होना बड़ी बात होती है।

कृष्ण सीधे अक्लमंदी पर ही प्रहार कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि यह जो तुम्हारी अक्ल है, यह भी प्रकृति के तीन गुणों का ही खेल है। तभी तो देखते नहीं हो कि क्या खाते हो, क्या पीते हो, किस माहौल में मौजूद हो, दिन है, कि रात है, और कैसी संगति है, इससे तुम्हारी अक्ल-बुद्धि बिल्कुल ही फिर जाती है।

तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा कि तुम शराब पी लेते हो, और शराब क्या है? रसायन ही तो है न? इथाइल अल्कोहल है, और क्या है? और बुद्धि कैसी घूम जाती है, घूमती है कि नहीं घूमती है? अब रसायन का प्रभाव तो किसी अन्य रसायन पर ही हो सकता है। तो शराब पीकर अगर बुद्धि घूम जाती है तो इसका मतलब है कि बुद्धि भी रसायन मात्र है।

ल्यो! बड़ी चोट लगी। लग रहा है किसी ने थप्पड़ मार दिया। हम तो सोचते थे कि बुद्धि कुछ रोशनी की तरह है, प्रकाश की तरह है, ईश्वर का अनुपम उपहार है मनुष्य को जो किसी और जीव को मिली नहीं है। जानवरों को हम नीची नज़र से देखते थे, कहते थे कि इनमें बुद्धि नहीं है, अक्ल नहीं है। और अब हमें पता चल रहा है कि हमारी भी ये जो बुद्धि है, ये कुछ और नहीं है — खाए-पिए का खेल है सारा, तीन गुणों का संयोग भर है। तो तुम्हें…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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