बुद्धि को चाहिए तो कृष्ण ही

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् || २, ६६ ||

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंतःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६६

प्रश्नकर्ता: इस श्लोक में निश्चयात्मिका बुद्धि का उल्लेख है। इसे हम अपने में कैसे लाएँ? ये किन कारणों से नहीं होती?

आचार्य जी, किसी काम को करने के लिए मन झुंड का साथ ढूँढता है। कैसे अपने नित्य अकेलेपन को प्राप्त करें और जीएँ? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: निश्चयात्मिका बुद्धि वो बुद्धि है जिसने पचास जगह लगना छोड़ दिया। जैसे जब भावना की बात हो रही थी तो हमने कहा था न, कैसी भी भावना हो—अच्छी भावना, बुरी भावना, मिटाने की भावना, राग, चाहे द्वेष, अपनेपन की भावना, परायेपन की भावना—पचासों के प्रति भावना तुममें है तो फ़िर कृष्णभावना तुममें नहीं हो सकती।

इसी से समझो कि निश्चयात्मिका बुद्धि क्या होती है। जो निश्चय करके एक पर स्थिर हो गई है, ऐसी बुद्धि। उसको अब कोई संशय नहीं बचा है। वो एक पर आ करके अटक गई है, अब हिलेगी नहीं। वो कहलाती है निश्चयात्मिका बुद्धि।

श्रीकृष्ण ने इस पर बहुत ज़ोर दिया है, कह रहे हैं कि तुम्हारी बुद्धि ही तुम्हारी दुश्मन है। बहुत चलती है तुम्हारी अक्ल, उसका चलना बंद करो। इसका मतलब यह नहीं है कि निर्बुद्धि हो जाओ, इसका मतलब यह है कि बुद्धि अब बाण की तरह सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर चले।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org