बीमारी ही नकली दवाई बनकर बीमारी को कायम रखती है

वक्ता: मुक्ति से बचने के लिए, सच से बचने के लिए आपके पास कोई बहाना नहीं हो सकता; क्यूँकी सच तो सच है। तो फिर एक ही तरीका रह जाता है उससे बचने का, वो होता है कि आप कोई झूठा सच आविष्क्रित कर लें। झूठा सच, नकली सत्य, नकली गुरु; ये सब बहुत ज़रूरी हैं, ताकि आप असली के पास न जा सकें। आप को वही रहे आना है जो आप हैं, लेकिन जो आप हैं, उसमें आपको कष्ट भी खूब है। तो अपने ही आप को, आपको ये दिलासा भी देनी है कि “मैं कुछ तो कर रहा हूँ अपनी स्थिति से निजाद पाने के लिए।” तो फिर आप झूठी दवाई खाते हैं। ऐसी विद्रुप स्थिति है हमारी।

कोई बीमार हो, जिसको बीमारी से मोह हो गया हो। वो बीमारी से छूटना भी चाहता है और नहीं भी छूटना चाहता है। तो फिर वो नकली दवाई खाता है, अपने आप को यह बताने के लिए कि “देखो मैं तो सब कुछ कर रहा हूँ, अब बीमारी ही ढीट है, नहीं जाती तो मैं क्या करूँ?” यह सब नकली दवाईयाँ हैं जो हम जान बूझ कर लेते हैं और नकली दवाईयाँ असली को विस्थापित कर देती हैं। “ले तो रहा हूँ दवाई, ले तो रहा हूँ दवाई।” कोई आपके पास आता भी है असली गोली ले कर, तो आप कहते हो “मैं ले तो रहा हूँ दवाई।” जैसे आप कहते हो न “मुझे अभी कोई और काम है।” “क्यों नहीं आते रविवार को?” — “मुझे कोई और काम है। ले तो रहा हूँ दवाई।” कैंसर के रोगी हो, किसको बेवकूफ बना रहे हो नकली दवाई ले कर? “मुझे और काम हैं।”

ऐसा समझ लीजिए कि आपकी बीमारी ही नकली दवाई बन कर आपके सामने आती है। आप बीमार हो इसी कारण आप नकली दवाई लेते हो। जो आंतरिक है वही तो बाहरी है न। बीमारी अन्दर से आपको छेदती है बीमारी बन के…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org