बिना समझ के ही चल जाएगी गृहस्थी?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! मेरा प्रश्न है कि क्या गृहस्थ जीवन होकर भी अध्यात्म जीवन में ज़्यादा समय दे सकते हैं? क्या यह सम्भव है?
आचार्य प्रशांत: दो तरीके होते हैं जीने के, या तो यह कह दो कि, “मैं गृहस्थ हूँ और मुझे अध्यात्म भी चलाना है।” या यह कह दो कि, “मैं आध्यात्मिक हूँ और मुझे गृहस्थी भी चलानी है।” बहुत अंतर है।
तुम अपनी क्या पहचान, अपना क्या नाम बताते हो, तुम अपनी ही नज़रों में अपनी क्या छवि, अपनी आत्म परिभाषा बनाते हो इसी से ज़िंदगी ऊपर नीचे हो जाती है एकदम। तुम क्या हो?