बिना समझ के ही चल जाएगी गृहस्थी?
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! मेरा प्रश्न है कि क्या गृहस्थ जीवन होकर भी अध्यात्म जीवन में ज़्यादा समय दे सकते हैं? क्या यह सम्भव है?
आचार्य प्रशांत: दो तरीके होते हैं जीने के, या तो यह कह दो कि, “मैं गृहस्थ हूँ और मुझे अध्यात्म भी चलाना है।” या यह कह दो कि, “मैं आध्यात्मिक हूँ और मुझे गृहस्थी भी चलानी है।” बहुत अंतर है।
तुम अपनी क्या पहचान, अपना क्या नाम बताते हो, तुम अपनी ही नज़रों में अपनी क्या छवि, अपनी आत्म परिभाषा बनाते हो इसी से ज़िंदगी ऊपर नीचे हो जाती है एकदम। तुम क्या हो?
अधिकांशतः लोग मुझसे कहते हैं, “गृहस्थी में रहकर भी आध्यात्मिक कैसे रहें?” उनका खेल इस सवाल के साथ ही खत्म हो जाता है क्योंकि तुमने बड़ी भारी शर्त रख दी, तुम कह रहे हो मूलतः “हम हैं तो गृहस्थ, वो हमारी प्रथम केंद्रीय प्रधान पहचान है। कौन हैं हम? गृहस्थ। अब गृहस्थ रहते हुए क्या कुछ थोड़ा सा अतिरिक्त मिल सकता है, बोनस (अधिलाभ) की तरह?” तो फिर तुम कहते हो थोड़ा सा अध्यात्म भी मिल जाए।
अध्यात्म गृहस्थी के ऊपर किया जाने वाला श्रृंगार नहीं है। अध्यात्म गृहस्थी की बुनियाद पर खड़ा किया जाने वाला भवन नहीं है। अध्यात्म बुनियादों की बुनियाद है। अध्यात्म मूलतः आधारभूत है। वो या तो तुम्हारी पहली पहचान होगा, नहीं तो नहीं ही होगा। यह नहीं हो सकता कि तुम कहो कि अध्यात्म हमारी दूसरी, तीसरी या छठी पहचान है। पहली पहचान हमारी क्या है? हम गृहस्थ हैं; दूसरी पहचान हमारी क्या है? हम हिंदू हैं; तीसरी पहचान हमारी क्या है? हम फलानी जाति के हैं; चौथी पहचान हमारी क्या है? हम अमीर हैं; पाँचवी पहचान हमारी क्या है? हम ज्ञानी हैं। अब यह सब होने के बाद हम कह रहे हैं कि हम आध्यात्मिक भी हैं। ऐसे तो चल चुका काम।
तुम वही सब कुछ रख लो, एक से पाँच तक, छठे का चक्कर ही छोड़ो। या तो अध्यात्म नंबर एक पर होगा, नहीं तो नहीं होगा। अध्यात्म का मतलब ही है नंबर एक का खेल। वो जो अव्वल नंबर है उसी में जीने को कहते है अध्यात्म, तो अध्यात्म नंबर दो की वरीयता कैसे हो सकती है? पर चाहते सब यही हैं। कहते हैं मैं जो हूँ वो तो प्राथमिक तौर पर बना ही रहा हूँ, साथ ही साथ थोड़ा अध्यात्म भी मिल जाता तो सोने पे सुहागा। “भैया टिक्की पर थोड़ी हरी चटनी और डाल देना।” अध्यात्म हरी चटनी थोड़े ही है। “आज सब्जी बड़ी फीकी लग रही है थोड़ा चाट मसाला इसमें गिरा दो।” अध्यात्म चाट मसाला थोड़े ही है कि तुम्हारी जिंदगी में ऊपर से छिड़क दिया जाए।
अध्यात्म या तो बिलकुल केंद्र में होगा या तो जीवन के हृदय में होगा, नहीं तो नहीं हो सकता। जीवन यदि शरीर है तो अध्यात्म उसका हृदय है। अध्यात्म जीवन रूपी शरीर के ऊपर धारण किया हुआ वस्त्र नहीं हो सकता, कोई माला…