बिना संकल्प आगे कैसे बढ़ें?
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव |
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ||
हे अर्जुन! जिसको सन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग जान; क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक २
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, संकल्पो के बिना कोई जीवन में आगे कैसे बढ़े? निष्काम कर्म तो समझ में आता है लेकिन संकल्परहित कर्म समझ में नहीं आता।
आचार्य प्रशांत: जब संकल्पों का त्याग करने को कहा जा रहा है तो किससे कहा जा रहा है? अर्जुन से कहा जा रहा है न? अर्जुन माने जीव, अर्जुन माने मन। कृष्ण माने आत्मा, सत्य। अर्जुन, यानी मन, जब भी संकल्प करता है, किस चीज़ का करता है? मन जब भी संकल्प करेगा, अपने ही संसार के भीतर के किसी विषय का, किसी वस्तु का करेगा। उन संकल्पों को छोड़ने की बात करी जा रही है।
तुमने जब भी कोई संकल्प उठाया है, अपनी इच्छित वस्तु को पाने का ही तो उठाया है न? और तुम उसी वस्तु की इच्छा करोगे जो तुम्हारे जैसी होगी, तुम्हारे ही तल की होगी। अहंकार अपने पार की वस्तु तो कभी पाना चाहता नहीं। क्यों? अपने से पार का कुछ मिल गया तो अहंकार को मिटना पड़ेगा।
तो अहंकार बहुत बड़ी कामना पसार ले तो भी माँगता अपने ही तल की कोई चीज़ है। संकल्प उसका यही रहता है कि मुझे कुछ ऐसा मिल जाए जो मेरे काम आ जाए, जो मुझे बड़ा और मज़बूत बना दे। जो कुछ भी माँगेगा, वह यही कहेगा कि अहंकार स्वयं उस माँगी हुई वस्तु के केंद्र पर रहे।