बाहर काम अंदर आराम
“श्रम से सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नाहीं।
सीधे उंगली घी जमो, कबसू निकसे नाहीं।“
~ संत कबीर
वक्ता: कबीर हैं।
सवाल यह है कि कबीर श्रम की महत्ता पर इतना ज़ोर दे रहें हैं, और आपने बार-बार कहा है कि श्रम की कोई कीमत नहीं।
कबीर जो कह रहें हैं वो अपनी जगह बिल्कुल-बिल्कुल ठीक है। कबीर ने इतना ही तो कहा न कि, ‘श्रम से ही सब कुछ होत है’। जो भी कुछ होना है, वो तो श्रम से ही होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। जो कुछ भी चलना है, वो श्रम से चलेगा। जो भी कुछ हिलना है, वो श्रम से ही हिलेगा, गति श्रम से, परिवर्तन श्रम से। कबीर ने कहा “श्रम से ही सब कुछ होत है, बिन श्रम मिले कुछ नहीं,” बिलकुल ठीक! जो कुछ मिलना है वो श्रम से मिलेगा, जो चलना है, वो श्रम से चलेगा, पर भूल गए आप एक बात कि अभी कबीर ने उसकी बात नहीं की है, जो नहीं मिलना है, जो नहीं होना है। और जीवन में वही केन्द्रीय है– जहाँ कुछ मिलना नहीं, जहाँ कुछ होना नहीं। होने का अर्थ है परिवर्तन और जो परिवर्तनशील है, उससे कहीं ज़्यादा वो महत्त्वपूर्ण है, जो अपरिवर्तनशील है। हाँ, ठीक, पदार्थ की दुनिया है, और पदार्थ को हिलाने के लिए तो श्रम चाहिए। हाथ–पाँव का हिलना बहुत जरूरी है, यह भुजाएं श्रम के लिए हैं, यह माँसपेशियाँ श्रम के लिए हैं। पर भूल मत जाइएगा कि भुजाओं और माँसपेशियों से कहीं ज़्यादा केंद्रीय आत्मा है और वहाँ कोई श्रम नहीं। वहाँ कुछ होता नहीं, वहाँ कुछ घटता नहीं, वहाँ न दिन न रात। वो वही जगह है, जिसे कबीर ने कहा है कि साईं की नगरी परम अति सुन्दर, कोई आवे न जावे। न आने…