बाहरी चुनौतियों से लड़ो और आंतरिक चुनौतियों को भूल जाओ
आचार्य प्रशांत: एक राजा थे, उनका नाम नहीं याद आ रहा अब। उनकी कहानी एक-दो बार मैं सुना भी चुका हूँ पहले। उनको यही था कि मौत लेने आती है। उनके सौ बेटे थे। कुछ ऐसा ही था।
श्रोता १: ययाति ।
वक्ता: हाँ, ययाति की कथा। काम हुआ है बताइए पूरा? सुनाइए, कहानी सुनाइये।
श्रोता १: एक राजा थे और उसके सौ पुत्र थे। उस राजा की मौत आई एक उम्र में; पूरी उम्र हो गयी थी। जब मौत आई तो राजा ने कहा कि अभी मैंने तो कुछ भोगा ही नहीं है। मौत ने कहा कि अब तो तुम्हें जाना पड़ेगा। लेकिन हम आपको कुछ वर्ष और दे देंगे बशर्ते आप अपने परिवार के किसी एक पुत्र का जीवन दिलवा दो। जब राजा अपने बेटों के पास गया तो उसका कोई भी बेटा तैयार नहीं हुआ। जो सबसे छोटा बेटा था वो तैयार हुआ, यह सोचकर कि ‘जब इनको कुछ नहीं मिला तो मैं क्या करूंगा जी कर’। और इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा।
वक्ता: ऐसे करते-करते उसने सबका जीवन ले लिया। हर बार जब यम छोड़कर जाएँ, तो इनकी ज़िन्दगी में कुछ साल बढ़ाते जाएँ। फ़िर जब आखिरी भी ख़त्म हो गया। यही है न?
श्रोता १: आख़िरी पुत्र भी जब ख़त्म हो गया और फिर जब मृत्यु आयी, तब राजा ने कहा कि अब मुझे केवल एक पंक्ति लिखने दो। और वो पंक्ति थी: “कभी भी आग में घी डालने से आग शांत नहीं होती”।
(कुछ समय के मौन के बाद)
लेकिन सर यह इतनी आसान बात है फिर भी मन इसे नहीं मानता है। मन चाहता है कि थोड़ी सी कठिन चीज़ हो जिसपर वो गुणा-भाग लगा सके।
वक्ता: उसमें अच्छा लगता है न। मैंने अर्जित किया।
श्रोता १: कुछ महनत से मिले।
वक्ता: “मैंने महनत की; मुफ्त नहीं मिला है”, समझ रहे हैं न? अनुग्रह नहीं है। अर्जन है। अर्जन है तो? *(शरीर की ओर इशारा करते हुए)*। फिर यह मत कहना कि समर्पण दिखाऊं। क्योंकि हमने तो कमाया; ऐसे नहीं मिला (हाथ जोड़ते हुए), ऐसे मिला (हाथ से छीनने का इशारा करते हुए)। तो इसलिए जो चीज़ आसान है, उसको मुश्किल बनाना ज़रूरी है। जब मुश्किल बनेगी, चुनौती होगी, तभी तो हम उसे हल करेंगे न।
श्रोता २: तभी जब हर बार पता चलता है कि इतना आसान था, तो अगली बार उसे करने में उतना ज़्यादा प्रतिरोधआता है।
वक्ता: देखो दैनिक जीवन में चुनौतियां आती हैं, उनको हल भी करना पड़ता है, पर मन ऐसा होना चाहिए कि किसी आंतरिक तल पर लगे कि कुछ चुनौती आ रही है, तो उस चुनौती से लड़ने की जगह तुरंत उसको छोड़ दे। यही समर्पण है।
तुम जैम की बोतल खोल रही हो, वो नहीं खुल रही है, यह भी चुनौती है। इसको छोड़ने की बात नहीं कर रहा हूँ। ठीक है, उसमें जो भी तुम्हें करना है, करके अपना छोड़ दो। खोल लो उसको। पर आंतरिक तल पर यदि समस्या आ रही है, तो उस समस्या से लड़ना नहीं है; उस समस्या को छोड़ना है। क्योंकि लड़कर तुम उस समस्या को वैध बनाते हो। इस बात को गौर से समझिएगा।
श्रोता ३: सर, यह बात बाहरी समस्या पर भी लागू हो जाता है।
वक्ता: जब तक बाहरी समस्या आंतरिक न बनने लगे। उदाहरण के लिए यही ले लीजिये ‘जैम की बोतल’, “मेरे हाथ में जैम की बोतल है। मैं इसे खोल रहा हूँ।”, इस तरह के रोज़मर्रा के काम होते हैं न। आपका यह दरवाज़ा ही नहीं खुल रहा है, तो वो भी एक चुनौती है, या और कोई बात, आपका कोई कपड़ा नहीं मिल रहा है, वो भी चुनौती है। आपको कहीं किसी समय पर पहुँचना है, यह भी एक चुनौती है। यह चुनौतियां जब आंतरिक बनने लगें, ‘आंतरिक’ बनने से क्या आशय है? गंभीर बनने लगें; महत्वपूर्ण बनने लगें। मन पर छाने लगें। तो उसी वक़्त इनका त्याग कर देना चाहिए। मन ऐसा हो जो एक सीमा से ज़्यादा गंभीरता बर्दाश्त न करे। बिना गंभीर हुए अगर कोई बड़े-से-बड़ा काम भी होता है, तो हो जाए। हम कर लेंगे। ठीक है। पर जब वो काम भीतरी बनने लगे, जैसे कहते हैं न: भार लेना। तो उसका त्याग कर दें। “छोड़ो, हमें पड़ना ही नहीं झंझट में। झंझट हो गया यह, अब हम नहीं पड़ रहे इसमें। छोड़ दिया। नहीं खायेंगे आज जैम। नहीं चाहिए। फेंको।”।क्योंकि भीतर के लिए चुनौती बनेगी, तो उस चुनौती से लड़ने वाला पैदा होगा, और जो चुनौती से लड़ने वाला पैदा होता है, उसी का नाम अहंकार है।
आंतरिक-तल पर चुनौती नहीं बननी चाहिए। और इसलिए जो आज का पूरा माहौल और सभ्यता की पूरी दिशा है, वो बड़ी विषैली है। क्योंकि आपको आंतरिक-तल पर चुनौतियां दे दी जाती हैं। एक आंतरिक परिवर्तन के लिए आपको संस्कृत कर दिया जाता है। आप समझ रहे हैं न? कि तुममें आंतरिक तौर पर ही कुछ क्षीणता है। और तुम्हें उसे पुष्टि देनी है, ‘ठीक करो’।
बाहर-बाहर बहुत बातें होती हैं। हो सकता है, बाहर मेरे चोट लगी हो और उसको ठीक होना है, वो भी एक बाहर-बाहर की चुनौती है। “मेरे घर में पानी नहीं है, मुझे उसका इंतज़ाम करना है”, वो भी एक बाहर-बाहर की चुनौती है। पर जब आपके भीतर यह भाव डाल दिया जाता है कि ‘भीतर कुछ चुनौती है’। भीतर की चुनौती समझते हो क्या है? “मैं छोटा हूँ, मुझे बड़ा होना है। मैं प्रेम के काबिल नहीं हूँ। अगर यह छूट गया तो मेरा क्या होगा?”, यह सब आंतरिक चुनौतियां हैं।
इनका सम्बन्ध अब तुम्हारे होने से है। इनका सम्बन्ध अब तुम्हारी उँगली, तुम्हारे नाखून, तुम्हारे पजामे से नहीं है; इनका सम्बन्ध अब तुम्हारी सत्ता से है। ऐसी चुनौतियों से लड़ना नहीं चाहिए। इनसे लड़कर के, फिर कह रहा हूँ, तुम इन्हें वैध बना दोगे। यदि मैं इस चुनौती से लड़ रहा हूँ कि, “मैं क्यों इतना ना-काबिल हूँ”, तो सर्वप्रथम तो मैंने यह मान ही लिया न कि “मैं ना-काबिल हूँ”। तो इस चुनौती से लड़ना नहीं है। इसका त्याग करना है।पर आपकी शिक्षा और सभ्यता आपको क्या सिखाती है?
श्रोता ४: लड़ो।
वक्ता: इससे लड़ो और इसको जीतो, और तुम जीत सकते हो। “अपनी ना-काबिलीयत से लड़ो और काबिल बनकर दिखाओ” — यह केन्द्रीय सन्देश है और यह बड़ा विषैला सन्देश है। जब भी कोई चुनौती भीतर की बनने लगे, एकदम त्याग दीजिये उसे। मैं फिर से कह रहा हूँ, मैं यह बात रोज़मर्रा की चुनौतियों के लिए नहीं बोल रहा हूँ कि अब एक बल्ब लगाना है और नहीं लग रहा है तो तुम कहो — एकदम छोड़ दो इसको। मैं यह बात आपके अस्तित्व की चुनौतियों के लिए नहीं बोल रहा हूँ।
कोई भी चुनौती तुम्हारे अस्तित्व की चुनौती नहीं होती चाहिए; क्योंकि अस्तित्व की कोई चुनौती होती ही नहीं। अस्तित्व कोई शत्रु नहीं है तो वो क्यों तुम्हें चुनौती दे?
कोई अस्तित्व की चुनौती नहीं है। हाँ, छोटे-मोटी चुनौती होती हैं, जैसे मच्छर बहुत हैं।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।