बाहरी चुनौतियों से लड़ो और आंतरिक चुनौतियों को भूल जाओ

जब तक बाहरी समस्या आंतरिक न बनने लगे। उदाहरण के लिए यही ले लीजिये “जैम की बोतल, मेरे हाथ में जैम की बोतल है। मैं इसे खोल रहा हूँ।” इस तरह के रोज़मर्रा के काम होते हैं न। आपका यह दरवाज़ा ही नहीं खुल रहा है, तो वो भी एक चुनौती है, या और कोई बात, आपका कोई कपड़ा नहीं मिल रहा है, वो भी चुनौती है। आपको कहीं किसी समय पर पहुँचना है, यह भी एक चुनौती है। यह चुनौतियां जब आंतरिक बनने लगें, ‘आंतरिक’ बनने से क्या आशय है? गंभीर बनने लगें; महत्वपूर्ण बनने लगें। मन पर छाने लगें। तो उसी वक्त इनका त्याग कर देना चाहिए। मन ऐसा हो जो एक सीमा से ज़्यादा गंभीरता बर्दाश्त न करे। बिना गंभीर हुए अगर कोई बड़े-से-बड़ा काम भी होता है, तो हो जाए। हम कर लेंगे। ठीक है। पर जब वो काम भीतरी बनने लगे, जैसे कहते हैं न: भार लेना। तो उसका त्याग कर दें। “छोड़ो, हमें पड़ना ही नहीं झंझट में। झंझट हो गया यह, अब हम नहीं पड़ रहे इसमें। छोड़ दिया। नहीं खायेंगे आज जैम। नहीं चाहिए। फेंको।” क्योंकि भीतर के लिए चुनौती बनेगी, तो उस चुनौती से लड़ने वाला पैदा होगा, और जो चुनौती से लड़ने वाला पैदा होता है, उसी का नाम अहंकार है।

आंतरिक-तल पर चुनौती नहीं बननी चाहिए। और इसलिए जो आज का पूरा माहौल और सभ्यता की पूरी दिशा है, वो बड़ी विषैली है। क्योंकि आपको आंतरिक-तल पर चुनौतियां दे दी जाती हैं। एक आंतरिक परिवर्तन के लिए आपको संस्कृत कर दिया जाता है कि तुममें आंतरिक तौर पर ही कुछ क्षीणता है। और तुम्हें उसे पुष्टि देनी है, ‘ठीक करो’।

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org