बाहरी आंदोलन से पहले भीतरी क्रांति

इंसान जब भी करेगा कुछ तो करने का माध्यम तो वो स्वयं ही बनेगा, इतिहास को देखोगे अगर तो अच्छाई होती अगर पाओगे तो वो भी इंसान के माध्यम से ही हो रही है और बुराई होती पाओगे तो उसका माध्यम भी बनता तो इंसान ही है।

सब क्रांतियाँ बाहरी व्यवस्था को बदलती हैं, सब क्रांतियाँ विचारधाराओं का परिवर्तन मात्र होती हैं या जीवनशैली का परिवर्तन हो जाती है अगर तुम औद्योगिक क्रांति या हरित क्रांति की बात करो। राजनैतिक क्रांति हो या प्रौद्योगिकी में क्रांति हो, क्षेत्र सबका बाहरी ही होता है।

अध्यात्म अकेली वो क्रांति है जो आंतरिक होती है।

आंतरिक क्रांति से आशय क्या है?

आंतरिक क्रांति से आशय ये है कि तुमने इतना स्वीकार किया कि बदलाव की ज़रूरत बाहर बाद में है, भीतर पहले है क्योंकि बाहर जो कुछ है वो निर्माण तो हमारा ही है। बाहर तो बदलाव करेंगे, काफी कुछ बदलाव तो अपने आप हो जाएगा बाहर, सर्वप्रथम आवश्यक है आंतरिक बदलाव।

आंतरिक बदलाव ज़रूरी इसलिए है क्योंकि सारी तड़प महसूस तो अंदर-अंदर होती है न? कारण हम कितना भी कह दें कि बाहरी है, दुःख का अनुभव कहाँ होता है? अंदर ही होता है न? इसीलिए अंदर बदलना पड़ता है और जब भीतर बदलाव आता है तो समझ में आता है कि भीतर कोई बैठा है जो बार-बार बहकने की वृत्ति रखता है, जो अपने आप को बहुत होशियार, बहुत चतुर मानता है, जिसकी नज़र में वही सर्वेसर्वा है।

ऐसा जो भीतर बैठा है मूर्ख उसको फिर कहा जाता है कि देख सर झुका के रख। वो सर झुका के काम करे तो ज़िन्दगी बहार हो जाती है और वो अकड़े-अकड़े जिए तो फिर वही ज़िंदगी बदहाल हो जाती है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org