बहन-बेटी की शादी कराने की इतनी आतुरता?

कोई नहीं कहता कि बहन को पढ़ाना है, लिखाना है, “आचार्य जी, भाई हूँ, धर्म निभाना है, बहन को स्वावलंबी बनाना है। बहन अपने पैरों पर खड़ी हो, आज़ाद हो जाए!” कोई आता ही नहीं! क्या समस्या है? “बहन की शादी!”

बहन से पूछ तो लो शादी वगैराह! ये उसका नीजी मसला है, प्राइवेट! पर्सनल मसला है ये। या तुम ज़बरदस्ती उसको कहोगे कि ले इसके साथ बाँध रहा हूँ, कमरे में घुस जा, सुहागरात मना।

जितना पैसा बहन की शादी में खर्च करने वाले हो, उतना उसकी शिक्षा में खर्च कर दो, उतने में उसको कोई कोर्स करा दो, कोई नौकरी दिला दो।

बाकी सब काम अपनी ज़िन्दगी के वो खुद कर सकती है, लड़का ढूँढने तुम जाओगे, तुम लड़कों में बड़े विशेषज्ञ हो? लड़का चुनने में लड़कियों की नज़र ज़्यादा अच्छी होगी या लड़कों की?

ये मुझे समझ नहीं आया - लड़की डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, वकील हो, खिलाड़ी हो, दुनिया का कोई काम-धंधा करती हो, वो सारे काम अपने खुद कर लेती है, शादी बेचारी नहीं कर पाती अपने आप! जाने कौन सी विकलांगता है! शादी करने के लिए भाई निकल कर आता है, मैं कराऊंगा न बहन की शादी।

तुम अपनी मुक्ति देखो, बेचारी लड़की को खुली हवा में साँस लेने दो, वो अपना रास्ता खुद देख लेगी। रही माँ-बाप की बात, उनसे कहो कि आप ज़रा धर्म-कर्म की सुध करें। ये शादी-ब्याह-बच्चे की बात करना, आपको अब शोभा नहीं देता। आपके दिन बीत गए। जब आपके दिन थे, तब आपने यही-यही बातें करीं; इसकी शादी-उसका ब्याह, ये लड़की-वो लड़का, इसका गर्भ-उसके बच्चे, अब छोड़िये! ये लीजिये उपनिषद सार-संग्रह, आप ये पढ़िए।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org