बड़ा मकान, महँगी शादी और कम तनख्वाह!
प्रश्नकर्ता: सर, मेरे पेरेंटस (माता-पिता) फ्यूचर को लेकर डराते हैं कि अभी यू आर थिंकिंग लाइक दैट, व्हेन यू विल बी ऐज़ ओल्ड ऐज़ अस, यू विल रिग्रेट, यू विल बी डिप्रेस्ड, यू विल बी अलोन (मेरे अभिभावक भविष्य को लेकर डराते हैं कि अभी तुम ऐसा सोचती हो पर जब तुम हमारी उम्र की हो जाओगी, तब तुम पछताओगी, तुम अवसादग्रस्त हो जाओगी, तुम अकेली हो जाओगी)।
आचार्य प्रशांत: आप कितने साल के हो?
प्र: आई एम थर्टी (मैं तीस साल की हूँ)।
आचार्य प्रशांत: ओल्ड (बूढ़ा) माने क्या होता है?
प्र: आई थिंक सिक्सटी (मेरे ख़याल से साठ)।
आचार्य प्रशांत: सिक्सटी प्लस? (साठ के ऊपर?) साठ के बाद पछताना पड़ेगा न?
प्र: हाँ, जी।
आचार्य प्रशांत: साठ में मर जाना। (श्रोतागण हँसते हैं) तीस साल मज़े करो और मर जाओ। समस्या क्या है? (तालियाँ बजती हैं)
साठ के बाद क्या होगा, उसके लिए आप अपना पूरा जीवन और जवानी क्यों ख़राब कर रहे हो?
प्र: सर, बड़े गम्भीर होकर बोलते हैं, ‘पछताओगे! शादी नहीं करोगे तो पछताओगे।’
आचार्य प्रशांत: मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि शादी मत करो। मैं बेढंगी और नालायक़ क़िस्म की शादियों के ख़िलाफ़ हूँ।
प्र: वो वही करना चाहते हैं। (सब हँसते हैं)
आचार्य प्रशांत: आप कोई ढंग की शादी कर सकते हों, बेशक करिए, उसमें कोई बात नहीं है।
थोड़ा एक-दो बातें और बताता हूँ, आप कहाँ फँसते हैं। दो-तीन चीज़ें होती हैं। एक, आप फँसते हो इस झंझट में कि बहुत बड़ा मकान ख़रीदना है। वो जो दो करोड़, तीन करोड़ वाले मकान होते हैं न, पाँच करोड़, आठ करोड़, कितना भी जाता है, आप वहाँ फँसते हो। आप उम्रभर जो उसकी किश्तें भरते हो, वहाँ फँसते हो। उसके लिए फिर चाहिए होता है अकूत पैसा। और आप जो शादियाँ करते हो, जिसमें ये अनिवार्य हो जाता है कि विलासिता का प्रदर्शन किया जाए, शादी माने वेडिंग के दौरान भी और फिर आगे विवाहित जीवन में भी, आप वहाँ फँसते हो। नहीं तो आप नहीं फँसोगे। काम चल जाएगा।
आमतौर पर जो हमारा लिविंग स्टैंडर्ड (जीवन स्तर) होता है, वो तो जितना आप कमाते हो उससे आधे में भी चल जाए अगर आपने मोटे वाले खर्चे न पाल रखे हों। अध्यात्म एक तरीक़े से इन मोटे खर्चों से बचने का नाम है।
मेरा जो बैच है आईआईटी का, आईआईएम का, उसकी औसत तनख़्वाह सालाना इस वक़्त दो से तीन करोड़ रुपये है। महीने का बीस लाख, पचीस लाख बैठ गया। और उनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जिनके पास अभी पर्याप्त नहीं है। लालच की बात नहीं, उनके पास सही में पर्याप्त नहीं है। खर्चे! आप वहाँ फँसते हो। आपने ऐसे खर्चों को अनिवार्य मान लिया है जो अनिवार्य हैं ही नहीं।
आप गुड़गाँव में फाइव बीएचके (पाँच कमरों का घर) लोगे, तो आपको क्या लगता है आप आज़ाद जी पाओगे? ले रखे हैं! महीने का बीस-पच्चीस लाख आता है तब भी कम पड़ रहा है, सही में कम पड़ रहा है, नहीं होता है उनका। अब बीस-पच्चीस साधारण बोल रहा हूँ, और उससे ऊपर वाले भी बहुत हैं। डॉलर वाले हैं उनका तो कोई गिनती ही नहीं, डॉलर वालों की तो महीने का करोड़ों है। यहाँ फँस जाते हो।
कुछ खर्चों को आपने व्यर्थ ही ज़रूरी समझ रखा है। फ़िल्मों ने आपको सिखा दिया है कि दो करोड़ की शादी नहीं करोगे तो तुम इंसान ही नहीं हो, मुर्गा हो तुम। अब आपको बहुत सारा पैसा चाहिए क्योंकि आपको दो करोड़ वाली शादी करनी-ही-करनी है। यहाँ पर बेचारे माँ-बाप की साँसें रुकने लगती हैं कि अगर ये कमाएगा नहीं तो दो करोड़ वाली शादी कैसे करेगा! दो करोड़ वाली शादी, पच्चीस लाख वाली एसयूवी और फिर अगर पत्नी घर ला रहे हो तो उसके सामने पैसे का प्रदर्शन करना भी ज़रूरी है। इसलिए तो भारतीय पुरुष की मानसिकता रहती है कि पत्नी मुझसे ज़्यादा न कमाये। पत्नी घर आ रही है तो उसको दिखाना भी ज़रूरी है कि मैं तुझे कितने लाख का ये सब ला सकता हूँ, पेंडेंट और *नेकलेस*। यहाँ फँस जाते हो। नहीं तो वो खर्चे जो ज़िन्दगी को बिलकुल मस्त और आनन्दमय बनाते हैं वो बहुत बड़े नहीं होते।
अभी पॉंच साल पहले तक जितने भी बाहर के शिविर होते थे, उनमें से आधे से ज़्यादा मैंने अपनी बुलेट पर करे हैं। और अभी कल भी संजय (एक स्वयंसेवक) को बोला कि उसको फिर से ठीक करा दो, मुझे चलानी है। और आप एसयूवी में बैठकर जाते हो पहाड़ों पर, मैं आपको गारन्टी बता देता हूँ, उससे ज़्यादा मज़ा बुलेट पर आता है। और मैंने चार-चार घंटे भींगते हुए पहाड़ों पर चलायी है। बर्फ़ पर चलायी है। चोपटा गये थे बर्फ़ पर। एकदम स्किड (फिसलना) कर रही है और लेकर गये। उसी से वापस आ रहे हैं। बारिश भी हो रही है। पूरे गीले हैं। बर्फ़ है, गीले हैं और चल रहे हैं। आप ऐसी चीज़ों पर पैसा खर्च करते हो, अनिवार्य समझकर, जिस पर पैसा खर्च करना अनिवार्य नहीं है।
रोहित (एक स्वयंसेवक) अभी खोज रहे थे कि कहाँ पर होगा ये महोत्सव। तो पहले बात करी जाकर होटलों में। तीन दिन के दस लाख रुपये से शुरुआत हुई। फिर बात करी जाकर बैंकेट हॉल में। वहाँ भी कम-से-कम तीन-चार लाख आया था तीन दिन का, कुछ ऐसे ही। फिर जाकर कॉलेजों में बात करी और यहाँ पर निश्चित करा।
होटल इतना सारा पैसा क्यों माँग रहा है? और जैसी आपको यहाँ व्यवस्था मिली है, इससे अच्छी होटल नहीं दे पाता। वो इतना सारा पैसा क्यों माँग रहा है? क्योंकि उसकी इतना सारा पैसा खाने की आदत बन चुकी है। उसके पास ऐसा ऑडिटोरियम है भी नहीं। फिर भी वो इतना सारा पैसा माँग रहा है, क्योंकि आप उसको वो पैसा देते हैं अपनी शादियों में। आपने उसकी आदत बिगाड़ दी है। और इसी शादी की ख़ातिर आप ज़िन्दगी भर ग़ुलामी करते हो कि एक दिन में वो सारा पैसा जाकर उड़ा दूँगा, किसी होटल वाले को दे दूँगा।
लड़की पैदा होती नहीं है कि बाप पैसा जोड़ना शुरू कर देता है, अपने आर्थिक स्तर के अनुसार। इतने करोड़ दहेज देना है, इतने करोड़ दहेज देना है। और फिर आप कहते हो कि देखो, हम सही जीवन कैसे जी सकते हैं, पैसा भी तो चाहिए न! मैं नहीं कह रहा कि पैसा नहीं चाहिए। पैसा चाहिए। मैं पूछ रहा हूँ पैसा किसलिए चाहिए। कोई आपके पास सार्थक लक्ष्य है जीवन में, जिसके लिए पैसा चाहिए?
हम कहते हैं, ‘आज हमें बहुत सारा पैसा चाहिए।’ पिछले तीन-चार सालों में, जीवन में मुझे पहली बार लगने लगा है कि पैसा चाहिए, क्योंकि अब दिखा है एक ऐसा लक्ष्य जो पैसे के बिना नहीं मिलने का। तो हम खुलेआम जाकर के बोलते हैं पैसा दो, हमें बहुत-बहुत सारा पैसा चाहिए। मैं आपसे पूछ रहा हूँ आपको पैसा क्यों चाहिए।
आप मुझसे पूछिए, मैं बताऊँगा मुझे पैसा क्यों चाहिए। ये संस्था इस वक़्त बहुत ज़्यादा ज़रूरत में है पैसे की। और हमारा पैसा इसलिए नहीं है कि हम बैंकेट हॉल को दे देंगे या उससे महल बनवा लेंगे, इसका हनीमून होगा उसमें।
आप पैसा जोड़ क्यों रहे हो, मुझे समझा तो दो। आप होटलों के रेट हाइयर (क़ीमत में बढ़ोतरी) करने के अलावा क्या करते हो जीवनभर? पूरा आपने मार्केट सिस्टम ख़राब कर रखा है। छोटा सा एक हॉल होगा, वो उसका कहता है दिन का चार लाख रुपया। मैं कहता हूँ, इसकी ग़लती नहीं है। इसकी आदत तो आम मध्यवर्ग और उच्च मध्यम-वर्गीय लोगों ने ख़राब करी है। वो देते हैं वाक़ई इतना। इसके लिए आप कहते हो, ‘ग़ुलामी करनी तो ज़रूरी है न! नहीं तो क्या होगा? एक बड़ा मकान तो ज़रूरी है न!’ तुम क्या करोगे इतने बड़े मकान का? मरोगे तो साथ चिता में जलेगा वो?
आपको मालूम है दुनिया भर में रेंटल (किराये) सबसे सस्ते हिंदुस्तान में हैं। आप जानते हैं इस बात को? भारत से ज़्यादा सस्ते रेंटल्स दुनियाभर में कहीं नहीं है। अमेरिका में लोग मकान ख़रीदें, ये बात सेंसिबल (समझदारी की) होती है, क्योंकि वहाँ मकान सस्ता है, किराया महँगा है। और भारत में आपको बड़ी-बड़ी कोठियाँ भी बड़े साधारण किराये पर मिल जाती हैं। भारत में कोई तुक ही नहीं है कि आप मकान ख़रीदो। इतने सारे मूर्ख लोग हैं जिन्होंने बहुत बड़े-बड़े मकान बनवा रखे हैं। उन्होंने मकान बनवा दिये, फिर वो करेंगे क्या? तो उसको किराये पर देते हैं। आप लो न किराये पर, कौन आपको रोक रहा है?
फिर कहते, ‘नहीं, किराये पर ले लेते हैं। फिर कभी मकान-मालिक कहता है कि नहीं, अब खाली करो, तो जाना पड़ता है।’
तो चले जाओ। समस्या क्या है?
‘नहीं, सामान शिफ्ट करना पड़ता है।’
तो समस्या क्या है?
‘नहीं, समान बहुत सारा है।’
सामान क्यों बहुत सारा है? समान क्यों है बहुत सारा? इतना सामान क्या करोगे लेकर? और सामान के लिए भी अब मूवर्स-पैकर्स होते हैं। शिफ़्ट करना है तो कर लो बाबा!
‘नहीं, सामान तो ठीक है, वो परिवार बहुत बड़ा है।’
कितने लोग हैं?
‘छ: लोग हैं।’
क्यों हैं छ: लोग परिवार में? ये छ: लोग कहाँ से आ गये, बताओ!
पहले तो तुम छ: लोग लेकर आते हो, फिर कहते हो अब शिफ्ट कैसे करें इनको। मैं कह रहा हूँ, ‘तीन नहीं हो सकते थे? पति-पत्नी और एक बच्चा नहीं हो सकता था?’ छ: कहाँ से आये? इतना सारा फर्नीचर है, इसको काटकर के चिता की लकड़ी बनाओगे? इतना बड़ा वो बिस्तरा क्यों लेकर के आये हो? कोई वजह?
‘नहीं। फ़िल्मों में होता है तो हम भी करेंगे। करण ज़ौहर ने सिखाया है।’
तो जाओ फिर उसी से उत्तर भी माँगो। ज़िन्दगियाँ आपकी बर्बाद हुई हैं, जाकर जवाब भी फिर वहीं माँगिए न, कि तुमने ऐसा हमें क्यों सिखाया।
अच्छी किताबें हों। अपना एक वाहन हो। छोटा ही सही, लेकिन एक साफ़-सुथरा और सही जगह पर एक घर हो — ये ज़िन्दगी जीने में आपत्ति क्या है आपको? और ज़िन्दगी पर बहुत सारे बोझ न हों, तो पढ़ने के लिए भी वक़्त हो, खेलने के लिए भी वक़्त हो, गीत-संगीत सीखने के लिए वक़्त हो। गिटार सीखो, वीणा सीखो, सितार सीखो, हारमोनियम है। ये ज़िन्दगी आपको बुरी लग रही है सुनने में? तो समस्या क्या है? समस्या क्या है?
‘नहीं, वो न, वो जीजा जी की शादी हो रही है, तो उसमें जाना है। तो जीजा जी की शादी में जाना है तो कम-से-कम एक लाख रुपये का लिफ़ाफ़ा तो देना पड़ेगा न!’ समस्या यहाँ आ जाती है। बेशर्म हो जाओ। जाओ खाकर आ जाओ। समस्या क्या है? लिफ़ाफ़ा दे दो लिखकर के, ऊपर ही लिख दो इसमें एक लाख रुपया है। खाली दे दो। फिर बोलो, बड़े चोर आते हैं आपके यहाँ! कैसे आदमी हो आप? मेरा एक लाख रुपया चुरा लिया! (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र२: घर से गाड़ी माँगते हैं तो गाड़ी नहीं देते।
आचार्य प्रशांत: समस्या क्या है? इतने गम्भीर क्यों हो रहे हो, बेटा? इतनी गम्भीरता की क्या बात है इसमें? बोल रहे हो, ‘घर से गाड़ी माँगते हैं तो गाड़ी नहीं देते।’ तो ख़रीद लो न। ओला (किराये की वाहन सुविधा) किसलिए है? घर वाले गाड़ी नहीं दे रहे तो ओला है, ओला भी रोक देंगे? क्यों नहीं हो सकता? बताओ न!
प्र२: सर, इंडिया में…
आचार्य प्रशांत: इंडिया नहीं, तुम अपनी बात बताओ। अगर करोगे तो क्या हो जाएगा? अगर करोगे तो क्या हो जाएगा, उत्तर दो!
प्र२: कुछ नहीं।
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं होगा। यही तो बोल रहा हूँ।
प्र२: सर, बल्कि अच्छा होगा।
आचार्य प्रशांत: मैं यही तो बोल रहा हूँ।
प्र२: सर, लेकिन मैं और वाइडर पर्सपेक्टिव (व्यापक परिप्रेक्ष्य) पर बोलना चाह रही हूँ। चलो, बाइक की बात हटा देंगे, हम लड़कियाँ होती हैं। हमें नहीं प्रेशर (दबाव) होता कि हमें घर बनाना है। ठीक है।
आचार्य प्रशांत: ठीक है।
प्र२: शादी की बात कही मैंने, तो मेरे पापा मतलब ज़्यादा खर्चना चाहते हैं, उनका सपना ही यही है कि मैंने जोड़ा है, मैं खर्च करूँ, इतना करूँ। मेरी लड़ाई सिर्फ़ ये है कि मैं करने नहीं दूँगी ।
आचार्य प्रशांत: ठीक है।
प्र२: तो मुझे नहीं करना है।
आचार्य प्रशांत: मत करो।
प्र२: सर, मैं ये जानना चाहती हूँ। मैं खर्च नहीं करती जितनी नॉर्मल (सामान्य) लड़कियाँ करती हैं। ये मेरा पर्सपेक्टिव है कि नहीं करना है।
आचार्य प्रशांत: समस्या कहाँ है?
प्र२: सर, फिर भी मैं पूछना चाहती हूँ मेरा ब्लॉकेज (अवरोध) कहाँ है? मैं क्यों नहीं कर पा रही हूँ?
आचार्य प्रशांत: कहीं नहीं है। इसी को तो माया कहते हैं, “सा माया।” जो है ही नहीं उसी को माया कहते हैं। कोई ब्लॉकेज नहीं है।
प्र२: सर, सिक्योरिटी (सुरक्षा) का इश्यू (मुद्दा) है।
आचार्य प्रशांत: सिक्योरिटी माने क्या होता है?
प्र२: सिक्योरिटी का मुद्दा है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ ताकि मुझे न पापा से, न किसी लड़के से माँगना पड़े।
आचार्य प्रशांत: आप पढ़े-लिखे हो, आपके पास वर्क एक्सपीरियंस (कार्य अनुभव) है। आप भूखे नहीं मरने वाले हैं। कौन सी सिक्योरिटी की बात कर रही हो? तुम कौनसी सिक्योरिटी से डरी हुई हो?
प्र२: सर, आजकल हर अच्छी चीज़ पर एक प्राइस टैग (क़ीमत पर्ची) है।
आचार्य प्रशांत: ठीक है। एक चीज़ बताओ न, कौन सी ऐसी चीज़ है जो तुम्हें चाहिए, प्राइस टैग है या नहीं है।
प्र२: सर, लेट से ऑर्गेनिक फूड, इट्स वेरी बेसिक थिंग। (मान लीजिए जैविक भोजन, ये मूलभूत चीज़ है।)
आचार्य प्रशांत: ठीक है, एक आदमी को ओर्गेनिक फूड महीने में कितने का आता है?
प्र२: सर, मैं एक इंसान की बात नहीं कर रही।
आचार्य प्रशांत: तुम एक इंसान हो। तुम दो नहीं हो। एक इंसान का महीने का ऑर्गेनिक फूड कितने का आता है कि तुम नहीं खरीद पाओगी?
प्र२: सर, पाँच सौ रुपये का।
आचार्य प्रशांत: महीने का? (ज़ोर देते हुए)
प्र२: सर, हज़ार।
आचार्य प्रशांत: महीने का? (फिर से ज़ोर देते हुए)
प्र२: सर, मैंने नहीं ख़रीदीं सब्ज़ियाँ।
आचार्य प्रशांत: यही तो दिक्क़त है न! (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र२: सर, मैं ऑनलाइन जब ऑर्डर करती हूँ तो महँगा ऑर्गेनिक फूड होता है।
आचार्य प्रशांत: आता है महँगा। महीने का पाँच हज़ार, आठ हज़ार। एक आदमी का इससे ज़्यादा का नहीं आएगा। तुम्हारे पास इतने पैसे नहीं होंगे? एक आदमी के खाने के पैसे नहीं होंगे तुम्हारे पास? तुम डरे किस बात से हो, वो तो बता दो।
प्र२: लेकिन सर, एक चीज़ की बात नहीं है और भी चीज़ें हैं।
आचार्य प्रशांत: और बताओ। और जैसे? खाने के अलावा और क्या बात है? बोलो।
प्र२: सर, जैसे कहीं जा रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, जोड़ते हैं। हम पैसा जोड़ेंगे। तुम्हारी सारी अनिवार्य आवश्यकताएँ।
प्र२: सर, मैंने पहली बार एक सोलो ट्रिप (एकल यात्रा) लिया। मेरे को बहुत डर था उस चीज़ का। तो मैं बाइक तो भूल जाओ मुझे कार में ही जाना था।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, कार में करेंगे।
प्र२: दूसरी चीज़, होटल होते हैं तो कोई कहीं भी ऐसे नहीं रह सकते।
आचार्य प्रशांत: अरे! मैं जान गया, आप होटल में गये, तुम पाँच हज़ार वाले होटल में चले जाओ। मैं पूछ रहा हूँ, ये सब मिलाकर भी कितना खर्चा बैठ जाएगा? बताओ।
प्र२: सर, पचास हज़ार तो महीने का कम-से-कम चाहिए सब चीज़ों के लिए।
आचार्य प्रशांत: पचास हज़ार कमाने के लिए अपने आप को बेचना आवश्यक है? पचास हज़ार इतना बड़ा अमाउंट (रकम) है?
प्र२: सर, मैं अगर सोचती हूँ तो लाख के नीचे कुछ होता नहीं है आज के समय में।
आचार्य प्रशांत: अभी पचास हज़ार बोला, अब लाख क्यों चाहिए!
प्र२: सर, वो बोलना चाह रही हूँ कि वो बिलकुल बेसिक (मूलभूत) चीज़ें हैं और…
आचार्य प्रशांत: बिलकुल बेसिक के ऊपर का क्यों चाहिए तुम्हें? एक सेकंड। नहीं-नहीं, थमो। ये बेईमानी हो रही है अब।
अभी हमने कहा पाँच हज़ार का कमरा, तब जाकर के बाद पचास हज़ार पर पहुँची। अब बोल रही हो कि ये बेसिक है। तुम्हें कितने हज़ार का कमरा चाहिए?
प्र२: सर, सेव (बचत) भी तो करना है कल के लिए।
आचार्य प्रशांत: कल के लिए सेव करना है? कल कमाना छोड़ दोगी क्या? तुम्हें क्या हो जाएगा कल?
प्र२: सर, कुछ भी हो सकता है। एक बेसिक सेविंग तो सबको चाहिए होती है न!
आचार्य प्रशांत: बेटा, सेव हो जाता है उतना। उतना तो तुम्हारी कम्पनी पीएफ ही काट लेती होगी। कौन कह रहा उतनी सेविंग नहीं हो रही? तुम्हारे पास कोई वजह नहीं है। तुम वजह ढूँढोगे तो बस कुतर्क निकलेंगे। कोई वजह नहीं है।