बच्चों को माँसाहार से कैसे दूर रखें?
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बच्चे को बोलिए कि ऐसा करतें हैं कि जो भी खाएंगे, शुरू से खाएंगे — सेब खाना है या भाजी खानी है तो चलो वहाँ से लेकर आते हैं जहाँ वो उगता है — भाजी ज़मीन से तोड़ी जा सकती है, सेब पेड़ से लिया जा सकता है। फिर उसको कहिए कि अब यह बकरा है, यह ज़िंदा बकरा घूम रहा है तो इसे खा जाओ — वो समझ जाएगा। आप जब ताज़ा सेब खाते हो तो और आनंद आता है न कि नहीं आता है? खुद पेड़ से तोड़ा और खुद खाया तो उसी तरीके से बकरा भी ताजा खाओ न, खुद अपने हाथों से मारो और फिर खाओ — अगर खाना ही है तो खाओ, डब्बाबंद माल नहीं चलेगा। डब्बाबंद माल तो झूठ है, वह सारी बर्बरता और क्रूरता छुपा जाता है। वहाँ तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि पीछे कितनी खून भरी कहानी है। अपने हाथों से मारो, अपनी आँखों से देखो और अपनी आँखों से देखना काफ़ी नहीं है, मैं कह रहा हूँ अपने हाथों से उसकी गर्दन दबाओ, फाड़ो इसको और फिर खाओ।
वास्तव में हमारे पास तो वह नाखून और उंगलियां भी नहीं है कि हम खा सकें और इसी से साबित हो जाता है कि — माँस खाना स्वभाव तो नहीं ही है हमारा, प्रकृति भी नहीं हो सकती हमारी। शेर माँस खाता है तो उसके पंजों में इतनी जान होती है कि वो भैसे को फाड़ डालता है और फिर उसके दांतों में इतनी जान होती है कि वह माँस को उखाड़ डालता है, चबा डालता है। आप को दे दिया जाए भैसा, कि भाई, भैसा खाओ। आपको और एक भैसे को एक कमरे में बंद कर दिया जाए कि लो खाओ और दूसरे कमरे में शेर और भैसे को बंद कर दिया गया है। आधे घंटे बाद दोनों कमरे के दरवाज़े खुलते हैं, एक से शेर निकलेगा, एक से भैसा निकलेगा। क्योंकि शेर तो खा जाएगा भैसे को और भैसा आपकी ऐसी मरम्मत करेगा, कहेगा कि “आ खा!”। लेकिन वहीं भैसे का माँस जब डब्बे में आता है तो आप कहते हो, “लाओ भाई, इधर लाओ। यह तो बीफ है, कुछ नहीं है, इससे तो अभी हम बर्गर बनाएँगे”। जाओ, उसको मारकर दिखाओ न। प्रकृति में तो कोई जानवर डब्बा बंद माँस नहीं खाता, जिसको खाना है वह शिकार करे, तुम भी करो न शिकार, करके दिखाओ।
गेहूं तुम पौधे से तोड़कर खा सकते हो, खा सकते हो कि नहीं खा सकते हो? सेब भी खा सकते हो, चावल भी खा सकते हो, सारे फल, सारी भाजियां खा सकते हो लेकिन एक छोटा सा मुर्गा भी अपने हाथ से मारकर खाना बड़ा मुश्किल पड़ेगा। बच्चा समझ जाएगा।
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