बच्चों को कुविचारों से कैसे बचाएँ
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या विचारों का आना असहज है?
आचार्य प्रशांत: आप कहिए न! अभी आप यहाँ बैठे हुए हैं, तल्लीनता से सुन रहे हैं, कितने विचार उठ रहे हैं? कुछ ही समय पूर्व, करीब एक-डेढ़ घण्टे का सत्र हुआ था, विचार-मग्न थे क्या? या ध्यान-मग्न थे? दोनों का अंतर जानिए। विचार-मग्न थे, या ध्यान-मग्न थे?
श्रोतागण: ध्यान-मग्न।
आचार्य: तो अब आप बताइए कि विचारों का होना सहज है? या असहजता का लक्षण है? कहिए, आप कहिए!
प्र: असहजता का।
आचार्य: अभी आप के चेहरे पर लिखा है कि सोचने की कोई ख़ास ज़रुरत नहीं। समस्या तब खड़ी हो जाती है, जब ज़रा दूरी बनती है। जब सामने हों, तब कहाँ हैं विचार? जब पीठ कर लेते हैं, तब भीतर संघर्ष चालू हो जाता है! उसमें, जिसमें आपका विश्वास है, और उसमें जो आपके सम्मुख है।
प्र: विचारों का आना, रोका जा सकता है?
जब बच्चा होता है, और घुटने चलना सीखता है, तो उसकी जान पहचान सबसे पहले अपने माता-पिता से हो जाती है, वो जानता नहीं है, ये मेरे माता-पिता हैं। वो केवल ये जानता है, कि ये दो लोग हैं जिनको वो पहचानने लगता है। अब वो भागता है घुटनों के बल अपने! कभी कोई खिलौना तोड़ देता है, कभी घर का कोई सामान गिरा देता है, कभी गमला फेंकता है हिला कर, कभी फूल तोड़ देता है उसका। तो हम उसको एक संदेश देते हैं कि, “ना, ऐसा ना कर बेटा! ना, ये गंदी बात है।” तो वो सन्देश तो बाद में दिया हमने उसे, उससे पहले घुटने चलने, खिलौना पकड़ने की जो प्रक्रिया है, बच्चे ने…