बच्चे का भला चाहते हों तो उसे आध्यात्मिक परवरिश दें

जिस घर में संतों की बात नहीं होगी, जिस घर में भजन नहीं होगा, उस घर में शांति मुश्किल है।

ग्यारह साल, चौदह साल का होते-होते मन का बहक जाना तय है, वो तो होना ही होना है। उसको काटने के लिए, उस होनी को टालने के लिए सतनाम होता है। वो सतनाम अगर नहीं लिया गया घर में तो बच्चा तो उस तरफ को जाएगा ही ना जिस तरफ को उसकी वृत्तियाँ प्रेरित करती हैं।

घर में ‘उसका’ ज़िक्र लेकर के आओ, जिस भी रास्ते हो सके। जहाँ कही ‘उसकी’ बात नहीं हुई है, वहाँ पर कष्ट, संकट आया ही आया है।

बच्चे से ज्यादा खतरनाक हालत में कोई नहीं होता, इसीलिए सबसे ज्यादा सहायता की आवश्यकता होती है बच्चे को।

पहली गंदगी बच्चा सोख के आता है माता के गर्भ से। शास्त्र कहते हैं कि गर्भ में शिशु इतना दुःख पाता है, इतना दुःख पाता कि पूछो मत। बालक की हालत निरुपायता की भी है, असहायता की भी है और विस्फोटक भी है।

सोखने में और सीखने में अंतर होता है। अधिकाँश बच्चे सीखते नहीं हैं, सोखते हैं।

अध्यात्म से शुरुआत न कर सकते हो तो सांसारिक ज्ञान से शुरुआत करिये। अगर बच्चे का सामान्य ज्ञान भी बढ़ेगा तो उसे दुनिया की समझ आएगी। और अगर संसार की समझ आनी शुरू हुई तो अध्यात्म की शुरुआत भी हो गई।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org