बंधन भी, मुक्ति भी - जो तुम चाहो!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने प्रकृति का संबंध बताया जहाँ पर एक संबंध पत्नी का संबंध है और एक संबंध माँ का संबंध है, तो मुझे रामकृष्ण परमहंस याद आ रहे हैं। तो वहाँ पर जो संबंध था, जो वे देवी की तरह, माँ की तरह पूजते थे तो यह वही संबंध है?

आचार्य प्रशांत: वही बात है, बिल्कुल वही बात है। माँ से आपको पोषण मिलता है, समझिएगा, पर माँ को आप भोगते नहीं हो। माँ से जीवन मिलता है, माँ से सब कुछ मिलता है। जन्म भी देती हैं माँ, पोषण भी देती हैं, उसके बाद परवरिश, संस्कार, लालन-पालन, सब मिलता है, लेकिन भोगते नहीं न माँ को। माँ से बच्चे की तरह लेते हो, पत्नी से संबंध दूसरा होता है।

रामकृष्ण जो शारदा माँ को ‘माँ’ कहकर संबोधित करते थे, उसमें सीख यही थी कि अगर संबंध बनाने ही हैं स्त्रियों से तो भोग के तो मत ही बनाओ। पत्नी भी है, अगर माँ स्वरूप उसको देख सकते हो तो फिर ठीक है, पर पत्नी से संबंध यही है चीरा-फाड़ी का, भोग का, एक दूसरे के शोषण का, उसके प्रति दृष्टि सदा यही है कि उसको किस तरीके से अधिक-से-अधिक नोंच-खसोंट लूँ। और यह बात सिर्फ़ पुरुषों पर ही नहीं लागू होती है, स्त्रियों पर भी लागू होती है कि उनका पति की ओर या तमाम पुरुषों की ओर क्या नज़रिया है।

वास्तव में प्रकृति में जो कुछ भी हो, चाहे स्त्री, चाहे पुरुष, चाहे चूहा, चाहे बिल्ली, चाहे फर्श, चाहे दीवार, उसके शोषण का, उसके दोहन का रुख तो न ही रखा जाए। आध्यात्मिक दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, वो इस तरह से नहीं चलती कि मुझे दूसरे से क्या मिल जाएगा। मिल उसे बहुत कुछ जाता है, जैसे बच्चे को माँ से। बच्चे को तो कई बार पता भी नहीं होता कि उसे क्या चाहिए, माँ को पता होता है। समझ रहे हो?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org