बँटा मन तो बँटा जीवन

प्रश्नकर्ता: आदमी बँटा हुआ कैसे है?

आचार्य प्रशांत: जितनी भी चीज़ें अलग-अलग दिखाई देती हैं, उनके बंटने का कारण आदमी का दिमाग ही है। फिर उसमें जात, धर्म, देश, हज़ार तरीके के बंटवारे चारों तरफ आ जाते हैं। दुनिया इसीलिए बंटी हुई है क्योंकि आदमी का मन एक नहीं है। उस पर हज़ार चीज़ों ने कब्ज़ा कर रखा है छोटा, छोटा। तो उसको उनको अलग-अलग रखना है क्योंकि वो जो चीज़ें हैं, जो कब्ज़ा करके बैठी हैं, वो अलग हैं; वो एक हो नहीं सकती हैं। तो फिर अंदर के बंटवारे के कारण आपको बाहर का बंटवारा भी करना ही करना है।

तुमने दो रिश्ते ही ऐसे बना दिए हैं, जिनकी परिभाषा ही यही है कि उनमें आपस में लड़ाई रहेगी ही रहेगी। तुमने एक माँ का बना दिया और एक बीवी का बना दिया। अब तुमको कमरे अलग करने पड़ेंगे ना? समय भी अलग करना पड़ेगा। जब माँ के साथ हो, उस समय पर बीवी आ गई, तो माँ से तुम्हारी सहज बातचीत नहीं हो सकती। जब बीवी के साथ हो, उस समय माँ आस-पास हों, तो तुम सहज नहीं रह पाओगे। तो पहले तुम मन में बांटते हो, तुम वहां पर परिभाषाएं देते हो कि ये चीज़ है, वो इस दायरे की है। कोई भी चीज़ होती है, उसको एक दायरा देते हो, और फिर वो दायरा बाहर भी दिखाई देने लग जाता है। जो दायरा पहले एब्सट्रैक्ट होता है, केवल मानसिक होता है, फिर वो ज़मीन पर भी दिखाई देने लग जाता है।

तो जहाँ कहीं भी किसी चीज़ की कोई परिभाषा होगी, कोई बंटवारा शुरू हो जाना है। वहीं आदमी बंटा-बंटा रहेगा ही रहेगा। तुमने जैसे ही परिभाषित किया कि ऑफिस क्या होता है, वैसे ही तुमने ऑफिस को घर से अलग कर दिया।तो जैसे ही ऑफिस कुछ भी हुआ, वैसे ही बंटवारा शुरू हो गया। तुम्हारे मन के दो हिस्से हो गए, एक घर और दूसरा ऑफिस । जितनी तुम्हारे मन में विविधता दिखाई देंगी, तुम उतना बंटा हुआ जीवन बिताओगे क्योंकि जितनी चीज़ें दिखाई दे रहीं हैं, वो मन के हिस्से ही हैं। कोई चीज़, चीज़ होती ही नहीं है, वो मन का एक हिस्सा होती है।जिसको जितनी अलग-अलग चीज़ें दिखाई देतीं हैं, वो उतना बंटा बंटा रहेगा। भेद भाव खूब रहेगा ऐसे मन के पास।

प्र: तो अब आगे क्या करना है?

आचार्य: कोई क्या करेगा? जब बंटवारा होता है, तो तुम्हें कैसा लगता है? तुम्हें अगर ये समझ में आ रहा है कि बंटवारे की शुरुआत कहाँ से होती है, तो तुम क्या करोगे?

प्र: खत्म करने की कोशिश।

आचार्य: जितना ज़्यादा तुम्हारे मन में परिभाषाएं रहेंगी, कि ये ये है, वो वो है, उतना ज़्यादा तुम्हें खराब लगेगा और सारा खेल यही है कि कोई नहीं चाहता कि उसको खराब लगे। खराब लगने को ही कहा जाता है- पीड़ा, कष्ट, दुःख। तो ये सारी बात इसीलिए हो रही है ताकि वो ना रहे।सारी ये जो बातें होती हैं, वो इसलिए होती हैं कि हमें जो खराब-खराब लगता…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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