फ़िल्में, टीवी, मीडिया, और आज का पतन

प्रश्नकर्ता: आज के समय में व्यक्ति के पतन में फ़िल्मों और टेलीविज़न की बहुत बड़ी भूमिका नजर आती है। कृपया इस विषय पर कुछ कहें।

आचार्य प्रशांत: बस एक चीज़ है जो अध्यात्म की सबसे बड़ी दुश्मन है, वो है — प्रचलित संस्कृति। और प्रचलित संस्कृति का वर्तमान में सबसे बड़ा वाहक है — सिनेमा। तुम्हें जो भी कुछ सिखा रहा है, यकीन मानो वो सिनेमा सिखा रहा है। और ये भी मत कह देना कि, “सिनेमा तो समाज का दर्पण है तो सिनेमा वही दिखा रहा है जो समाज में पहले से मौजूद है,” — ग़लत बात। समाज में बहुत कुछ मौजूद है, सिनेमा सब कुछ नहीं दिखाता। सिनेमा भले ही वो सब चीज़ें ही दिखाता हो जो समाज में मौजूद हैं, पर सिनेमा उनमें से कुछ चीज़ें चुन-चुन कर दिखाता है जो तुम्हें उत्तेजित और आकर्षित करती हैं।

समाज में तो संत भी हैं, मुझे बताना संतों पर कितनी पिक्चरें बनती हैं? जो लोग कहते हैं न अगर सिनेमा बुरा है तो इसका कारण यह है कि समाज बुरा है, सिनेमा तो बस वही दिखा रहा है जो समाज में है। समाज में क्या कबीर और रैदास नहीं हैं? तुम्हारी पिक्चरों में कबीर और रैदास का ज़िक्र भी कितनी बार आता है?

तुम्हें बर्बाद करने में अगर एक चीज़ का सबसे बड़ा योगदान रहा है, तो वो है — फ़िल्में और टी.वी.।

ये बात मैं घर के बड़े-बूढ़े की तरह नहीं कह रहा, जो ऊब जाता है टी.वी. की आवाज़ से। यह बात मैं बहुत ध्यान और विचार के बाद कह रहा हूँ। हम सब की चेतना हमारी चेतना है ही नहीं; हमारी चेतना फ़िल्मी है।

तुम सब ने बहुत कुछ सीख रखा है और बहुत तुम्हारी धारणाएँ हैं, और तुम्हारी वो सब धारणाएँ टी.वी. और सिनेमा से आ रही हैं। तुम भले अपने आप को शिष्य नहीं मानते हो, लेकिन तुमने गुरु बहुत बना रखे हैं। और तुम्हारे गुरु यही सब हैं जो फ़िल्मों के परदे पर नज़र आते हैं, जो पर्दे के पीछे हैं — पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक और ये फ़िल्मी कलाकार, जो कि कलाकार भी कम ही हैं, उनमें से अधिकांश तो जिस्मों के सौदागर हैं। अधिकांश का गुण यह नहीं है कि उन्हें अभिनय की कला आती है, उनमें से अधिकांश का गुण यह है कि उन्होंने अपना जिस्म कामुकता की दृष्टि से उत्तेजक बना रखा है। अगर बात सिर्फ़ अभिनय कला की होती, तो उनमें से बहुत सारे हैं जो कहीं नज़र नहीं आते।

तुम्हें पता भी नहीं है कि जिनको तुम ‘अपने’ विचार कहते हो, वो वास्तव में ‘फ़िल्मी’ विचार हैं। जिनको तुम ‘अपनी’ भावनाएँ बोलते हो, वो वास्तव में फ़िल्मों ने दी हैं तुमको; पर उन भावनाओं को लिए-लिए फिरते हो, उन भावनाओं को पोषण देते हो, उन्हीं भावनाओं पर जीते हो, मरते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे चेहरे के जो भाव हैं, वह भी तुम्हारे नहीं है। तुम्हारे देखने का जो तरीक़ा है, ये जो टेढ़ी-तिरछी…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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