पढ़ने बैठो तो मन भागता है

कोई चीज़ क़ीमती है, ज़रूरी है, तभी तो चुनी है। अगर वो ज़रूरी है, तो फिर वो तुम्हारा ध्यान खींचेगी। नहीं खींच रही है लेकिन, ये तुम्हारा अनुभव है, जैसा कि तुम्हारा कहना है। तो इसका मतलब ये है कि तुम जो कुछ कर रहे हो उसमें तुम्हारा चुनाव निहित नहीं है, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती चल रही है।

सच्चा चुनाव वास्तव में प्रेम होता है।

इसीलिए वो अ-चुनाव होता है।

इसीलिए उसमें चुनाव करने की प्रक्रिया में बहुत झंझट नहीं होती।

जैसे प्रेम में झंझट होती है क्या कि — “प्रेम करूँ या न करूँ?” है भई! सच्चा चुनाव एक तरह से विवश कर देता है तुमको कि अब चुन लिया तो इसी के साथ हैं। मन इधर-उधर भाग ही नहीं सकता, ख़ुद ही तो चुना है। इश्क़ है भई, अब कैसे इधर-उधर भाग जाओगे? और अगर इधर-उधर भाग रहे हो तो इसका मतलब चुना ही नहीं है, या चुनाव बेहोशी में हुआ है।

तो क़िताबों को छोड़ो, सबसे पहले अपने आपसे ये मूलभूत सवाल पूछो — “ये पढ़ाई मैं कर क्यों रहा हूँ?” ख़तरनाक सवाल है। क्योंकि इसका ये भी जवाब आ सकता है कि -“मुझे कोई रुचि है नहीं वास्तव में । किसी ने मेरे सामने मेवा लटका दिया है, लालच के कारण मैं पढ़े जा रहा हूँ कि मैं वो मेवा खाऊँगा।” ये भी हो सकता है कि पढ़ाई ही छोड़नी पड़े। ज़िंदगी भर बर्बाद रहोगे, उससे अच्छा है कि अभी छोड़ दो।

लेकिन अगर उत्तर ये आया कि — “वास्तव में कुछ बनना,” तो फिर अगली बार क़िताब से ध्यान भंग नहीं होगा। ज़िम्मेदारी तो लो न अपने…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org