प्रेम और मृत्यु बहुत भिन्न नहीं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप कह रहे हैं कि खुद के प्रति प्रेम होना चाहिए। आपके अनुसार हमें अपने आंतरिक कष्ट से मुक्ति की कोशिश करनी चाहिए। एक तरह से ये स्वार्थ तो गहन अहंकार हुआ।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो वो गहन अहंकार चाहिए, गहन माने गहरा। गहरा अहंकार है जहाँ, वहाँ तो आत्मा है। अहंकार ये कह ही दे कि मुझे बाहर आना है तकलीफ़ से, बिल्कुल एक बार प्रण करके, तो काम हो जाएगा। वो ये नहीं कहता है ना। कहता है मलहम लगा दो, पट्टी बांध दो, सुला दो, नशा दे दो, बढ़िया खाना मिल जाए थोड़ा। वो ये थोड़े ही कहता है कि नाश हो जाए, अंत हो जाए इस पीड़ा का, ये वो कहता ही कहाँ है। खुद को ही बुद्धू बना लेता है बस।

श्रोता: यही प्रेम है। जब इतनी गहरी माँग हो तब शायद प्रेम भी गहरा आएगा।

आचार्य: इसीलिए प्रेम और मृत्यु बिलकुल साथ-साथ चलते हैं। जो जीवन है हमारा ये अप्रेम का है। जिस दिन प्रेम आएगा उस दिन मृत्यु शुरू हो जाएगी। किस मृत्यु की बात कर रहा हूँ समझ रहे हो न, शारीरिक नहीं। तो इसीलिए फिर इतना तो सन्तों ने गाया है कि इश्क और मौत साथ-साथ नहीं चले तो इश्क कैसा।

प्रेम जो तुम्हें तुम्हारे जैसा छोड़ दे वो प्रेम तो है ही नहीं। प्रेम का मतलब ही है कि आ गया तुम्हारे मौत का फरमान। और मौत का फरमान नहीं है वो ज़िंदगी का सामान है, आधा किलो धनिया, चार किलो लौकी, इससे ज़िंदगी चलती रहेगी, क्यों भाई? कुर्सी, बिस्तर, चौकी, तो फिर ये प्रेम नहीं है, ये तो ऐसे ही है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org