प्रेम और बोध साथ ही पनपते हैं

दो रास्ते रहे हैं सदा जिनकी मंज़िल एक ही है। ‘ज्ञान’ का और ‘प्रेम’ का।

ज्ञानमार्गी कहता है, “मुझे स्वयं को पाना है,” और स्वयं को पाने में वो संसार को बाधा मानता है। वो कहता है, “स्वयं को इसी कारण नहीं पा पा रहा क्योंकि मेरी दृष्टि संसार की ओर लगी हुई है।” वो अंतर्गमन माँगता है। कहता है, “जहाँ संसार से मुक्ति मिली, तहाँ अपने को पा लूँगा।” इसी कारण उसके शब्दकोश में, ‘त्याग’ एक बड़ा महत्त्वपूर्ण शब्द हो जाता है। वो लगातार त्याग की बात करेगा। वो कहेगा, “छोड़ना है।” वो अनासक्त होने की बात करेगा, वो वैरागी होने की बात करेगा।

ये ज्ञानमार्गी है। वो जानना चाहता है।

और जो दूसरा रास्ता होता है ‘प्रेम’ का, वो कहता है, “मुक्ति चाहिए किसको? त्याग करना क्या है? मुझे तो डूबना है।” वो कहता है, “ये संसार छोड़ने के लिए नहीं है। इसी संसार के माध्यम से तो उस प्यारे के साथ एक हो जाऊँगा।” उसका रास्ता मुक्ति का नहीं है, उसे त्याग नहीं चाहिए।

उसे मिलन चाहिए।

मंज़िल एक ही है पर भाषा अलग-अलग है। एक कहेगा, “दूर हो जाना है,” और दूसरा कहेगा, “पास ही आ जाना है।”

ज्ञानी के शब्दकोश में शब्द होगा ‘होश’, वो कहेगा, “मुझे होश मे आना है।” और प्रेमी की भाषा होगी ‘बेहोशी’ की। वो कहेगा, “मुझे मस्त हो जाना है।” बात दोनों एक ही कह रहे हैं। अगर गौर से देखोगे तो दोनों की अवस्थाओं में कोई अंतर नहीं है, पर शब्द विपरीत जान पड़ेंगे।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org