प्रारब्ध, कर्मफल और आत्मविचार

प्रारब्ध, कर्मफल और आत्मविचार

प्रश्नकर्ता: अभी आप कह रहे थे कि श्रीकृष्ण अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं और बाकी सब लोग अपने बारे में बोले जा रहे हैं। तो क्या इसका सम्बन्ध इससे है कि श्रीकृष्ण का कर्मफल और प्रारब्ध कट चुका है लेकिन बाकी सभी का कर्मफल और प्रारब्ध अभी जारी है?

आचार्य प्रशांत: कर्मफल, प्रारब्ध कोई अपने-आपमें वस्तुएँ नहीं होतीं। चेतना प्रमुख होती है। तुम्हें निर्णय करना होता है, निर्णय सब कर्मफलों को काट सकता है। कोई ऐसी विवशता नहीं होती कि आपको कर्मफल के कटने तक बंधनों में रहना ही पड़ेगा। कर्मफल की ही अवधि को अगर भुगतना है तो फिर अध्यात्म किसलिए है? कर्मफल उसके लिए होता है जो अभी कर्म के फल का भोग करने को इच्छुक हो। कर्मफल, दोहरा रहा हूँ, सिर्फ़ उसके लिए होता है जो अभी कर्म के फल का भोग करने को इच्छुक हो। जो अभी वही हो जिसने कर्म करा था, वही विवश होता है कर्मफल भोगने को। अध्यात्म एक भीतरी मृत्यु है, बाहरी को मृत्यु कहते हैं तो भीतरी वाली को महामृत्यु कह देते हैं।

महामृत्यु का अर्थ होता है कि जिसने कर्म करा था वो नहीं बचा तो अब फल कौन भोगेगा? अध्यात्म इसीलिए होता है ताकि तुम अपने अतीत से अलग हो जाओ। जब अतीत से अलग हो गए तो अब अतीत के कर्मों के परिणाम क्यों भोगोगे भाई? तो इसमें बात ना प्रारब्ध की है, ना भाग्य की है। बात अर्जुन के चैतन्य चुनाव की है और वो चैतन्य चुनाव आप भी कर सकते हैं। नहीं अंतर पड़ता कि आपका अतीत कैसा रहा है और उसमें कर्म कैसे रहे हैं।

अतीत के प्रति मृत हो जाएँ, इसी का नाम मुक्ति है। जो अतीत के प्रति मृत नहीं हो सकता वो अतीत को ही आगे ढोता रहेगा, इसी का नाम तो भविष्य है।

भविष्य किसको कहते हैं? अतीत की लाश को भविष्य कहते हैं। अतीत ख़त्म हो चुका है, उसकी लाश बची हुई है, उसको तुम ढो रहे हो, इसी का नाम भविष्य है। अतीत में कर्म है, भविष्य में कर्मफल है। अतीत में जो था वो फिर भी जीवित था, भविष्य में जो है वो उसकी लाश है, वो गंधाती है; ठीक वैसे, जैसे कर्मफल की सड़ांध हमें अनुभव होती है। जब कर्म करते हो तब तो इसी दृष्टि से करते हो न कि इसका कुछ बहुत अच्छा परिणाम मिलेगा? करते बेहोशी में हो, फिर परिणाम जब आता है तो पछताते हो। बात समझ रहे हो?

तो इस तरह के सिद्धांतों में नहीं फँसना है कि अर्जुन इसलिए बच कर निकल पाए क्योंकि अर्जुन को कोई वरदान प्राप्त था या अर्जुन फ़लाने तरीके से विशिष्ट थे या कोई और बात थी। वेदांत बस एक विशिष्टता सिखाता है, वो विशिष्टता है — सही चुनाव। जो सही चुनाव कर ले गया, वो विशेष है। और नहीं कोई विशेष होता। ना कोई जाति से विशेष है, ना जन्म से, ना आयु से, ना अनुभव से; किसी भी प्रकार से कोई विशेष नहीं होता, ना किसी का कोई विशेषाधिकार होता है।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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