प्रशंसा — स्वास्थ्य का भ्रम
स्वास्थ्य स्वभाव है और स्वस्थ होने का मतलब होता है, सब ठीक है।
प्रशंसा स्वास्थ्य का भ्रम देती है।
देखियेगा आप कि जब भी किसी ने आप की तारीफ़ की है, उसने आपसे यही कहा है कि तुम ठीक हो। तुम ठीक से ठीक हो। कोई कमी नहीं है तुममें। दूसरों में कमी होगी तुममें कोई कमी नहीं। इसी कारण तुम श्रेष्ठ हो।
प्रशंसा आपको भुलावा देती है कि आप स्वस्थ हैं और यदि आप स्वस्थ हैं तो आपको अवलोकन की कोई ज़रूरत नहीं। आपको कोई आवश्यकता नहीं है कि आप अपनी ओर देखें।
यदि आप स्वस्थ ही हैं तो फिर ज़रूरत क्या है मन का दृष्टा होने की? यदि आप स्वस्थ ही हैं तो साक्षित्व की भी कोई ज़रूरत नहीं, फिर कैसी तुरिया? यदि आप स्वस्थ हैं तो आपके पास परम उपलब्धि है ही।
मन प्रशंसा इसलिए मांगता है क्योंकि प्रशंसा उसे याद दिलाती है स्वास्थ्य की, एक झूठी याद। वो उसे उसका भुलावा देती है जो अभी उसे मिला नहीं है, पर जिसकी याद उसे खूब सताती है।
मन स्वास्थ्य की अपेक्षा में जी रहा है, मन स्वास्थ्य के अभाव में जी रहा है। मन स्वयं एक विकृति है, विक्षिप्तता है, विकार है, और मन को खूब पता है कि वो क्या है। ऐसे में कोई आकर उसे ढांढस बंधा जाता है, वो मन की तारीफ़ कर देता है, वो मन को कहता है कि सब ठीक है। मन को पल-पल अनुभव यही हो रहा था कि कुछ गड़बड़ है, कुछ खोट है, कुछ कमी है। कोई बाहर वाला आता है और मन को क्या सांत्वना दे देता है, कि ठीक है सब। इसी सांत्वना का नाम है प्रशंसा। इसी का नाम है तारीफ़। इसी कारण मन को तारीफ़ अच्छी लगती है।