प्रतियोगी परीक्षा में असफल होने पर निराशा

प्रश्नकर्ता: प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार असफल होने के बाद मैं अब सांसारिक प्रयासों से अनासक्त हो गया हूँ। क्या अध्यात्म में मुझे शरण प्राप्त हो सकती है ताकि मुझे सांसारिक प्रयत्न फिर करने ही ना पड़ें?

आचार्य प्रशांत: रॉंग नंबर। ऐसे थोड़ी है की इधर से पिट गए, उधर से पिट गए तो… ऐसे नहीं, बेटा। अध्यात्म का मतलब है जो जूझ न भी रहा हो उसे जुझा देना। अध्यात्म का मतलब ये थोड़े ही है कि एक परीक्षा दी, दो परीक्षा दी, चार परीक्षा दी फिर थक कर बैठने के लिए तुम्हें कोई कांधा दे दे। चुपचाप सो जाने के लिए कोई छाँव दे दे, इसको थोड़े ही अध्यात्म कहते हैं। अध्यात्म तो मुर्दों में जान फूँक देता है। जवान आदमी मुर्दा हो जाता हो, अध्यात्म उसका समर्थन थोड़े ही कर देगा।

और ये कौनसा बड़ा तुम पर पहाड़ टूटा है कि तीन-चार परीक्षाएँ दीं और कम्पीटीसन में सिलेक्शन (चयन) नहीं हुआ? कौनसी बड़ी बात हो गई भाई, काहे परेशान हो रहे हो? वो तो होती ही इसीलिए हैं कि उनमें न हो। दुर्घटना उनके साथ घटती है जिनका हो जाता है। अच्छा बताओ, सड़क पर हज़ार गाड़ियाँ निकलती हैं, नौ-सौ-निन्यानवे निकल जाती हैं एक ठुक जाती है, दुर्घटना किसके साथ मानते हो? जो निकल गयी या जो ठुक गयी?

प्र: जो ठुक गई।

आचार्य: तो कम्पीटीसन में भी ये ही होता है न। नौ-सौ-निन्यानवे तो जैसे थे वैसे ही निकल जाते हैं, एक ठुक जाता है। दुर्घटनाग्रस्त तो वो हैं।

मज़ाक की बात है लेकिन बात समझो। वो जो पूरी प्रक्रिया है वो बनी ही ऐसी है कि उसमे हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे अचयनित ही निकलेंगे। और ये बात तुमको पहले से पता होती है न? किस में बैठे थे, सिविल सेवा में? हज़ार, डेढ़-हज़ार सीटें होंगी अधिक-से-अधिक और लोग उसमें बैठे होंगे दस-बीस लाख। मेरे ही समय में बैठे थे पाँच लाख, अभी तो पंद्रह हो गए होंगे कम-से-कम। जिस साल मेरा चयन हुआ था पाँच लाख बैठे थे और सीटें थी मुश्किल से मेरे ख्याल से ढाई-सौ, तीन-सौ।

दिख नहीं रहा है कि ये जो पूरा मामला बनाया गया है, ये सिलेक्शन (चयन) के लिए नहीं रिजेक्शन (अस्वीकरण) के लिए बनाया गया है, नहीं दिख रहा?

और तुम्हें क्या लग रहा है ये जो ढाई-सौ चयनित हुए थे इन्हीं में सुर्ख़ाब के पर लगे थे? एक-आध बार और करा लो परीक्षा तो पता चलेगा इन ढाई सौ में से आधे बाहर हो गए, अब कोई और हैं सवा-सौ जो अंदर आ गए। अगर ढाई-सौ का चयन हो रहा है तो समझ लो जो पहले एक हज़ार हैं उनमें से किसी का भी हो सकता था। आखिरी समय में संयोग भी अपना काम कर जाता है। इसमें क्यों मन छोटा कर रहे हो? कुछ और कर लो, जवान आदमी हो।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant