प्रकृति और मनुष्य के बीच सही सम्बन्ध कैसा हो?

जब आप प्रकृति कहते हैं तो वो कई अर्थ रखती है हमारे लिए, प्रकृति वो तो है ही जिसका हम साधारणत: प्रकृति से ताल्लुक बिठाते हैं, पेड़-पौधे, पर्यावरण, पशु इत्यादि। उसके अतिरिक्त ये जो हमारा शरीर है, ये भी प्रकृति ही है। तो प्रकृति और चेतना के बीच क्या संबंध होना चाहिए?

पता होना चाहिए कि चेतना और प्रकृति दो अलग-अलग तलों की बातें हैं, पूरा एक अध्याय श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण ने इसी बात को समझाने को समर्पित कर दिया कि चेतना और प्रकृति के अंतर को समझो। प्रकृति में चेतना का कोई गुण नहीं पाया जाता, चेतना मात्र मुक्ति माँगती है, चेतना की कोई इच्छा नहीं है लिप्त होने की, चेतना को लिप्त नहीं मुक्त होना है। प्रकृति को मुक्ति चाहिए ही नहीं, वो त्रिगुण धर्मा है, उसको उन्हीं तीन गुणों के माध्यम से भाँती-भाँती के खेल खेलने है, समय बढ़ाना है, आना है, जाना है, जन्म करना है, मृत्यु करनी है। प्रकृति और चेतना में कोई मेल हो ही नहीं सकता।

चेतना वो जिसका इरादा बस एक है, ये सब जो मेरे चारों ओर खेल चल रहा है, ये सब मेरे चारों ओर जो समय का और स्थान का विस्तार है, मुझे इससे परे रहकर मुक्त रहना है। मुक्ति चेतना का स्वभाव है। प्रकृति का कोई स्वभाव होता ही नहीं, प्रकृति के गुण होते हैं, प्रकृति का केंद्र प्रकृति ही है। प्रकृति कुछ चाह रही ही नहीं है, एक तरह से वो अपने आप में तृप्त है।

प्रकृति से चेतना की जो आसक्ति हो जाती है , प्रकृति से पुरुष की जो आसक्ति हो जाती है, वही पुरुष का, माने चेतना का बंधन है। चैतन्य मनुष्य को, प्रकृति का बस दृष्टा…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org