प्यार माँगा नहीं जाता, प्यार के काबिल हुआ जाता है
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं ‘स्नेह’ या यूँकहूँ तो ‘अटेंशन’ की प्राप्ति के लिए कभी-कभी अपने आप को कमज़ोर दिखाती हूँ। मैं ऐसा क्यों करती हूँ?
आचार्य जी: हम सब पूर्णता में जीना चाहते हैं। हम सब स्वास्थ्य में जीना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे अनुभव में न आए कि हम बीमार हैं, आधे-अधूरे हैं, चिंताग्रस्त हैं, पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारा अनुभव ही हमें बता देता है कि हमारी हालत क्या है। स्वयं से ही पूछो तो बात खुल जाती है। तो हम फिर अपने आप को एक विचित्र तरह का हास्यास्पद धोखा देते हैं। हम कहते हैं कि मुझे तो पता है कि मेरी हालत कैसी है, तो अगर स्वयं से पूछूंगा तो जानता हूँ कि जवाब क्या मिलेगा, उत्तर आएगा, स्वस्थ नहीं हो तुम, बेचैन हो, बीमार हो। हम तिकड़म लगाते हैं, हम दूसरों से पूछते हैं और दूसरों से अगर हमको सम्मान मिल जाए, स्वीकृति मिल जाए, स्नेह मिल जाए, तो फिर हम अपने आप को जताते हैं, अपने आप को साबित करते हैं, ‘देखा हम ठीक ही हैं’ उसने कहा, ‘देखा हम सम्मान योग्य हैं, उसने हमें सम्मान दिया’, ‘देखा हम इस लायक हैं कि हम पर ध्यान दिया जा सके, हमें ध्येय बनाया जा सके’, ‘देखो उसने हम पर ध्यान दिया न अभी-अभी’।
दूसरों से स्वीकृति की कामना, वास्तव में बताती यही है कि आप खुद अपने आप को स्वीकृत कर नहीं पा रहे। अगर कोई अपनी ही दृष्टि में स्वच्छ होगा, सम्पूर्ण होगा, स्वस्थ होगा तो वो दूसरों से प्रमाण मांगने क्यों जाएगा? दूसरों से प्रमाण माँगने जैसे ही आप पहुँचते हैं, अपने स्वास्थ्य के प्रति, वैसे ही ये तय हो जाता है कि आप अस्वस्थ हैं। दूसरों…