पूर्ण मुक्ति कैसी?
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु
निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥
~ अष्टावक्र गीता
अनुवाद: जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरक्त होने के लिए और व्यवहार करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता है। किन्तु निमित्त के शून्य होने पर भी वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है।
आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र किसी फन्दे में नहीं आएंगे, बोलेंगे उसको ख़ुद ही काट जायेंगे। “जीवनमुक्त का चित्त ध्यान से विरक्त होने के लिए और व्यवहार करने के लिए प्रवृत नहीं होता है।” तो कोई ज़ोर नहीं चलेगा उस पर कि विरक्त हो जाओ, व्यवहार इत्यादि, समझ रहे हो? संसार मे कृणा करो, संसार मे आचरण करो। इसके लिए आप उसे बल पूर्वक प्रवृत नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही साथ निमित्त शून्य होने पर भी, कामना शून्य, लक्ष्य शून्य होने पर भी वह ध्यान से विरक्त भी होता है और व्यवहार भी कर रहा है।
आप पाएंगे कि आचरण में वो ध्यान से विरक्त भी हो रहा और व्यवहार भी कर रहा है, निमित्त नहीं है। भीतर से उसको कोई आशा नहीं है, लक्ष्य नहीं है, लालशा नहीं है और बाहर से कोई उसे प्रवृत्त कर नहीं सकता। अपनी उसकी चित्त की वृत्तियाँ जल चुकीं हैं। लेकिन फिर भी वो व्यवहार करता है। जो उससे कोई भी नहीं करवा सकता वो, वो भी करता है। ध्यान से विरक्त भी हो जाता है। आप पाएंगे वो सर्वदा ध्यान में प्रतीत नहीं होगा। क्या करोगे? कैसे पकड़ोगे उसे? कैसे इशारा करोगे उसकी ओर? क्या लक्षण बचे उसके? कोई लक्षण ही नहीं बचे।…