पूर्ण मुक्ति कैसी?
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु
निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥
~ अष्टावक्र गीता
अनुवाद: जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरक्त होने के लिए और व्यवहार करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता है। किन्तु निमित्त के शून्य होने पर भी वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है।