पुल पर घर नहीं बनाते

आचार्य प्रशांत: देखो प्रकृति से, संसार से भागा नहीं जा सकता, लेकिन प्रकृति और संसार तुम्हारे लिए आख़िरी चीज़ भी नहीं हो सकते। बहुत ध्यान से समझो इस बात को। ना इनसे भाग सकते हो — किससे? — दुनिया से, संसार से। अपने शरीर से बाहर निकलकर भाग सकते हो? तो संसार से बाहर निकलकर कहाँ भागोगे? तुम्हारा शरीर भी क्या है?

प्रश्नकर्ता: संसार।

आचार्य: जिसको लग रहा हो कि वो संसार का त्याग वगैरह कर सकता है वो वास्तव में कह रहा है कि, “मैं अपने शरीर से बाहर निकलकर जी सकता हूँ।” कर सकते हो ऐसा? नहीं कर सकते न। तो ये आदमी की स्थिति है; शरीर से बाहर निकल नहीं सकता और शरीर में पाता है दु:ख। तो इस नाते एक बहुत ज़बरदस्त बात कही गई। कहा गया कि है कोई; उसे स्रोत कह लो, उसे आदि कह लो, उसे उद्गम कह लो, चाहो तो उसे आत्मा कह लो या परमात्मा कह लो, सत्य कह लो। कहा गया, “वो है, और उससे इस समय की, इस संसार की पूरी धारा निकलती है और उसी में विलीन हो जाती है।”

तो चैन का, शांति का, और संसार का सही संबंध तुमको अभी-अभी बताया गया है। कैसे बताया गया है? संसार के भीतर तो चैन नहीं है ये तुम्हारा व्यावहारिक अनुभव है, ठीक है? और संसार के भीतर जो कुछ है उसमें तुम चैन पाने निकलते हो तो मुँह की खाते हो, ये तो व्यवहारिक अनुभव रहा ही है न हमारा? लेकिन ये भी नहीं कहा जा रहा है कि परमात्मा संसार से बाहर कहीं है, दूर कहीं है। कहा जा रहा है वो संसार के रेशे-रेशे में है; मध्य में है, आदि में भी है और अंत में भी है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org