पुरुष और स्त्री का मूल संबंध
खसम उलटि बेटा भया, माता मिहरी होय।
मूरख मन समुझै नहीं, बड़ा अचम्भा होय।।
~ कबीर साहब
आचार्य प्रशांत: कर्म, कर्म का केंद्र, कर्म का स्वामी, कर्मफल — समझेंगे इनको।
खसम उलटि बेटा भया
‘खसम’ का अर्थ हुआ जिसको तुमने स्वामी का स्थान दिया, और ‘बेटा’ हुआ स्वामी को स्वामित्व देने का फल। जिसको पति बनाओगे, उसी के केंद्र से अब बेटा पाओगे। तुम वो कर्ता हो जो किसी को अपना ‘करतार’ घोषित करता है। ‘करतार’ माने परमकर्ता, स्वामी। तुम अपने आप को छोटा-सा कर्ता मानते हो। तुम किसी को अपने ऊपर छा जाने का मौका दे देते हो, किसी को अपना करतार बना लेते हो। अब वो केंद्र हो गया है तुम्हारा। अब वो मालिक हो गया है तुम्हारा।
जब हम कहते हैं न कि — “तुम किस केंद्र से काम कर रहे हो, ये देखना आवश्यक है,” तो दूसरे शब्दों में वो यही बात है कि तुम किसको मालिक बना करके काम कर रहे हो, ये देखना आवश्यक है। केंद्र ही मालिक होता है। जहाँ से तुम शुरू कर रहे हो, जिसकी आज्ञा तुम बजा रहे हो, वही मालिक है। और फिर उस केंद्र से तुम जो करते हो, उसका फल निकलता है। कैसे जानो कि तुम जो कर रहे हो वो ठीक है या नहीं? कैसे जानो कि तुम जिसके सामने झुके हो वो झुकने लायक है या नहीं? युक्ति सीधी है। युक्ति ये है कि यदि तुम्हारे कर्म से कोई फल आता हो, यदि तुम्हारे कर्म से कोई बेटा आ जाता हो, तो जान लेना कि तुमने जिसको स्वामी, करतार, केंद्र बनाया, वो ग़लत था। उचित कर्म वही है जिसका कर्मफल ही ना हो।