पुरानी परम्पराएँ: मान लें या त्याग दें?

पुरानी परम्पराएँ: मान लें या त्याग दें?

प्रश्नकर्ता: जय-हिन्द आचार्य जी। मेरा प्रश्न यह है कि हम जीवन में हाँ और ना के बीच उलझे रहते हैं। हमारे बीच एक जंग छिड़ी रहती है कि हाँ बोलें कि ना बोलें। मैं एक प्रसंग आपको बताना चाहूँगा। हमारे यहाँ पर हवन-पूजन की परंपरा चलती है, तो हम कलावा बाँधते हैं।

घर वालों की सुनते हैं कि आप बाँध लीजिए। लेकिन हमारा मन नहीं करता, हम उसे मानते नहीं है, तो कभी-कभी हम उसे ना भी बोल देते हैं कि नहीं हमें नहीं बाँधना है; परन्तु घर वालों का दिल रखने के लिए हम मान लेते हैं। तो क्या हमें हाँ बोलना चाहिए उनका मन रखने के लिए या नो मीन्स नो (नहीं मतलब नहीं) ही होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: जैसे वो बाँधना चाह रहें हैं उसको तो स्पष्ट ना है। लेकिन जो परंपरा है उसको तो ना बोलने से पहले हम सवाल पूछना चाहेंगे कुछ कि ये थी ही क्यों। आप जैसे बँधवाना चाह रहें हैं उसको ना है, क्योंकि आप बिना बताए बाँधना चाह रहे हैं। न आप ख़ुद जानते हैं और न आप हमें बता रहे हैं और किसी अंधी प्रक्रिया में शामिल होना हमें स्वीकार नहीं है, बात ख़तम।

जैसे आप चल रहें हैं, ऐसे तो हमें ना ही बोलना पड़ेगा। लेकिन हम ना बोल रहें हैं आपके तौर-तरीक़े को; सारी जो परम्पराएँ हैं हमारी उनको हम आदि से अंत तक ना नहीं बोल रहें हैं। अगर हम ये जान सकें, समझ सकें कि उस परंपरा के पीछे क्या है, उसमें निहित प्रतीकों का अर्थ क्या है और वो बात हमको उपयोगी लगे तो हम हाँ बोलेंगे, फिर बोलेंगे। साथ-ही-साथ ये भी हो सकता है कि जब हम जिज्ञासा करें तो हमें पता चले कि नहीं, वो बात पूरी अर्थहीन है, खोखली, रूढ़ी है…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org