पीड़ा है सहज स्वभाव से दूरी

आचार्य प्रशांत: सवाल ये है, कि अगर मनुष्य चैतन्य है तो ऐसा कैसे हो जाता है कि हम भी लोहे और चुम्बक कि तरह व्यवहार करने लग जाते हैं? अगर मनुष्य वास्तव में चैतन्य है, तो हमारे जीवन में प्रेम क्यों नहीं है?

इसका कारण ये है, कि चैतन्य होना हमारा स्वभाव है, पर हम अपने सहज स्वभाव से बहुत दूर रहते हैं। हम अर्ध-मूर्छित अवस्था में रहते हैं, या फिर ये कह लो कि हम अर्ध-चैतन्य अवस्था में रहते हैं। हम न तो पूरे तरीके से पत्थर ही बन जाते हैं, जैसे लोहा और चुम्बक की तरह पूरे तरीके से ही अचैतन्य हो जायें, मुर्दा हो जायें, हमसे वो भी नहीं हो पाता। और हम ऐसे भी नहीं हो पाते कि हम पूरी तरह चैतन्य हो जायें। हम बीच में त्रिशंकु कि स्थिति में झूलते रहते हैं, आधे इधर और आधे उधर, और इसी बीच की स्थिति में दुख है सारा।

इसी बीच कि स्थिति में सारी पीड़ा है। यही स्थिति है कि जिस का सत्य को बुद्ध ने बयान किया है, जो बुद्ध के चार वचन हैं जिसमें उन्होंने जीवन के सत्य को बयान किया है। तो पहली बात उन्हें कहनी पड़ी कि जीवन दुख है, इसलिए क्योंकि ना तो हम पत्थर ही हैं, और ना हम बुद्ध हो पाते। हम बीच का झूला झूलते रहते हैं और वहाँ दुख के अतिरिक्त कुछ नहीं है। याद रखना पत्थर को कोई दुख नहीं होता, और जब चेतना प्रकट होती है तब भी कोई दुख नहीं होता। ना नीचे दुख है, ना ऊपर दुख है, हम जैसे हैं वहाँ पर दुख है।

देखो एक जानवर है, कुत्ता या बिल्ली, जो उड़ नहीं सकता। उसे कोई अफ़सोस नहीं होगा कि मैं उड़ क्यों नहीं पाता, क्योंकि उड़ना उसका स्वाभाव नहीं। एक बाज़ है, उड़ रहा है आसमान में, उसको भी कोई दुख…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org