पीछे छूट जाने का डर लगता है?

प्रश्नकर्ता: सर, ये फोमो क्या है, फियर ऑफ मिसिंग आउट (पीछे छूट जाने का डर)? मुझे भी बहुत डर लगता है कि दूसरे लोग जिन चीज़ों का अनुभव ले रहे हैं, आनंद ले रहे हैं कहीं मैं उन चीज़ों से वंचित न रह जाऊँ। मैं कुछ समय से आपको सुन रहा हूँ तो बहुत सारी चीज़ें अब मुझे व्यर्थ, निरर्थक भी दिखाई देने लग गई हैं, फिर भी जब मैं दूसरों को उन चीज़ों का मज़ा लेते देखता हूँ तो मेरे भीतर फोमो जग जाता है, कि दूसरे तो मज़े ले गए, मैं ही कहीं अध्यात्म के चक्कर में चूक न जाऊँ, वंचित न रह जाऊँ।

आचार्य प्रशांत: तो ले लो मज़ा, कौन रोक रहा है। ले लो भई मज़ा। वहाँ इतने मज़े ही होते, पहली बात, तो तुम अध्यात्म की तरफ आते ही क्यों? अध्यात्म किसी अड़ियल हेडमास्टर द्वारा तय किया हुआ पाठ्यक्रम थोड़े ही है।

बहुत सारे अभी भारत में भी शिक्षा बोर्ड ऐसे हैं जिनके पाठ्यक्रम में ऐसी चीज़ें पढ़ाई जा रही हैं जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं। उनकी किताबों में अभी भी उन्नीस सौ पचास-उन्नीस सौ साठ के दशक का विज्ञान पढ़ाया जा रहा है। कुछ मामला उन किताबों में ऐसा है ही नहीं जो आज की ज़िन्दगी में व्यावहारिक रूप से काम आए। बस कुछ बड़े लोग हैं, ऊँचे बैठे हैं और उन्होंने तय कर दिया है कि ये किताबें पढ़नी हैं, इनको पढ़ो नहीं तो परीक्षा में फेल करार दिए जाओगे। तो बेचारे जो छात्र हैं वो डर के मारे धौंस सहे जा रहे हैं और पढ़े जा रहे हैं।

अध्यात्म ऐसा थोड़े ही है, पुरानी तिथि बाह्य किताबों जैसा, कि उनमें जो लिखा है उस बात की कोई प्रासंगिकता नहीं लेकिन फिर भी रटो, और सवाल आ रहे हैं जो पूछ रहे हैं कि ये क्या हुआ था, वो क्या हुआ…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org