पाना और बाँटना ही है प्रेम

हम इतनी अजीब हालत में पहुँच चुके हैं कि जो सबसे क़रीबी है, हम उसी को नहीं जानते।

हमें दूर का बहुत कुछ पता है। तुमको बहुत अच्छे से पता है कि चाँद-सितारे क्या हैं और कैसे हैं। हम कभी मंगल ग्रह पर यान भेज रहे हैं, तो कभी चाँद पर। तुम पूरा जो ब्रह्मांड है, उसके आख़िरी छोर तक का पता लगा लेना चाहते हो, बस अपना ही पता नहीं है।

क्या है प्रेम?

छोटे बच्चे को भी पता होता है, और हम उलझ गए हैं।

तुम मग्न हो, यही प्रेम है।

तुम मस्त हो, यही प्रेम है।

जब तुम मस्त होते हो, तो दुनिया भली-भली सी लगती है। कोई शिकायतें नहीं रहती ना? कोई ख़ास चाह भी नहीं बचती, जब मौज में होते हो। या तब ये कह रहे होते हो कि आज से पाँच साल बाद ये पाना है? मस्ती में हो, चहक रहे हो, तो क्या आकांक्षाएँ तब भी सिर उठा रही होती हैं कि अब ये पा लूँ या वो पा लूँ?

तब तो झूम-झूम कर योजनाएँ बना रहे होते हो।

जब तुम मस्त-मगन होते हो, तो तुम्हारे आसपास जो भी होता है, वो भी तुम्हारी मस्ती में भागीदार हो जाता है। तुम ऐसे हँस रहे होते हो, मुस्कुरा रहे होते हो, चहक रहे होते हो कि वो भी चहकना शुरू कर देता है। यही प्रेम है

“मुझे मौज मिली और मेरे माध्यम से दूसरों तक पहुँचे,” यही प्रेम है।

”मुझे मिली, इस कारण वो मेरे हर सम्बन्ध में दिखाई देती है,” यही प्रेम है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org