पहले हाँ नहीं, ना बोला जाता है
एको हि रूद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमॉंल्लोकानीशत ईशनीभि:।
प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोपान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपा:॥
वह एक परमात्मा ही रूद्र है। वही अपनी प्रभुता-सम्पन्न शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं, अन्य किसी का नहीं। वही समस्त प्राणियों के अन्दर स्थित है, वह सम्पूर्ण लोकों की रचना करके उनका रक्षक होकर प्रलयकाल में उन्हें समेट लेता है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक २)
आचार्य प्रशांत: कौन हैं सब देवता? कौन है उन सब देवताओं के अधिपति महादेव रूद्र? और क्या संबंध हुआ रूद्र का परमात्मा से? और क्या संबंध हुआ देवताओं का, महादेव का और परमात्मा का हमारे मन से? इन विषयों को समझना ज़रूरी है।
देवता माने जो हमें कुछ दे सकें। तो देवता की भी परिभाषा की हमारे ही संदर्भ में गई है। देवता वो जिससे हमें कुछ लाभ हो सके। इस परिभाषा के केंद्र में हमारी किस स्थिति की ओर इशारा है? हम वो हैं जिसे कुछ पाने की, माँगने की अभी ज़रूरत है।
शुरुआत यहाँ से होती है − 'मैं वो हूँ, जो अधूरा है, जो याचक है, जो कुछ पाने का इच्छुक है, जिसका पात्र खाली है। जो उस अवस्था में नहीं है जिस अवस्था में उसे होना चाहिए। चूँकि मैं ऐसा हूँ, इसलिए मुझे आवश्यकता है देव की, जिससे मुझे कुछ मिल सकेगा।'
तो मैं कौन हुआ?
'मैं वो हुआ जो बेचैन है, चिंतित है।'
मैं कहाँ पहुँचना चाहता हूँ?
'मन की एक उच्चतर स्थिति में जिसमें चिंता कम है, अभाव कम है। मैं जी रहा हूँ अभाव की स्थिति में। और मन की उस उच्चतर स्थिति पर मैं…