पशुओं के प्रति हिंसा

प्रकृति का सुंदर संतुलन है। किसी भी प्रजाति की संख्या एक सीमा से प्रकृति स्वयं ही नहींं बढ़ने देती।

आदमी शेर तो नहींं खाता न? तो गली-गली शेर घूम रहे हैं? पेड़ों पे शेर लटके हुए हैं? घरों के अंदर शेर दुबके हुए हैं? जहाँ जाओ वहाँ शेर नज़र आ रहे हैं क्या?

तो ये अपने उपद्रव को छुपाने वाले मूर्खतापू्ण तर्क हैं कि “अगर मैं नहींं खाऊंगा तो उनकी तादाद बढ़ जाएगी” जानते हो न मुर्गे कैसे खाते हो तुम? मुर्गे कृत्रिम रूप से पैदा किये जाते हैं ताकि तुम उन्हें खा सको। इतने मुर्गे तो अस्तित्व में स्वयं पैदा भी नहींं होते जितने मुर्गों को खाने की तुम्हारी भूख है। फार्म हैं मुर्गों को पैदा करनेवाले!

यहाँ तो हालात ये है कि तुम इतना खा रहे हो कि जितने प्राकृतिक रूप से पैदा हो ही नहींं रहे और तर्क तुम उल्टा दे रहे हो, तुम कह रहे रहो कि अगर हम नहींं खाएंगे तो उनकी भीड़ बढ़ जाएगी।

भीड़ तो छोड़ दो, तुम इतना खा रहे हो कि उन बेचारों की प्रजाति समाप्त हो जाए। और कितने जानवर आदमी ने खा-खाकर के उनकी प्रजाति ही ख़त्म कर दी। तुम्हें मुर्गा खाना होता है तो अरबों मुर्गे रोज़ फर्मों में पैदा किए जा रहे हैं। सिर्फ़ इसलिए कि तुम उन्हें खा सको। उनकी हत्या कर सको। तो ये बेवकूफ़ी वाला तर्क है।

अनैतिक तो है ही, और अतार्किक भी है। जो यह कहता है उसे तर्क देना भी नहींं आता; निर्बुद्ध है।

ऐसे ही ये तर्क दिया जाता है जब भी मैं बताता हूँ कि गाय का दूध पीना अपराध है, कहते हैं, “देखो साहब, गाय का दूध अगर नहींं पीया तो गाय को इतना दूध हो…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org