पर्यावरण की समस्या का मूल कारण

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पर्यावरण को लेकर के बचपन से ही रुझान रहा है और जैसे-जैसे बड़े हुए हैं, उसको विनाश की ओर बढ़ते हुए ही देखा है। काफ़ी इच्छा थी कि इसके लिए कुछ किया जाए पर फिर अपने काम-धाम में ही लग गए। जब कभी भी गाड़ियों में से धुआँ निकलता पाता हूँ तो मन बेचैन हो जाता है। कोशिश भी करी, चिट्ठियाँ भी लिखीं, आर.टी.आई. भी फाइल की, कुछ ख़ास उससे हुआ नहीं।

जब जानते हैं कि इसमें हम ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते तो मन को कैसे मनाएँ, कैसे उसे डाइवर्ट किया जाए इस दुःख से?

आचार्य प्रशांत: देखो, इन सारी समस्याओं का जो मूल कारण है वो आदमी की हवस है ‘बने’ रहने की और बने-बने ‘भोगते’ रहने की। बने रहने की हवस के कारण आदमी ज़्यादा-से-ज़्यादा जी रहा है और अपने बाद अपने पीछे बच्चे छोड़कर जा रहा है। भोगने की हवस के कारण आदमी अधिक- से-अधिक उपभोग कर रहा है।

समाधान तो बहुत सरल है — ज़्यादा नहीं, अगले बीस साल यदि बच्चे नहीं पैदा हों तो सब ठीक हो जाएगा क्योंकि लोग जा तो रहे ही हैं, जाना तो रुक नहीं जाएगा। बीस साल बस दुनिया की आबादी में बच्चे जुड़ें नहीं — पर्यावरण भी ठीक हो जाएगा, हवा भी ठीक हो जाएगी, जंगल-पहाड़ भी ठीक हो जाएँगे, समुद्र भी ठीक हो जाएँगे, पशु-पक्षी ठीक हो जाएँगे, सब ठीक हो जाएगा। बीस साल बस दुनिया की आबादी मत बढ़ाओ। और मन अगर ऐसा हो गया कि ‘आबादी मत बढ़ाओ’, तो मन फिर ऐसा भी हो जाएगा जो उपभोग नहीं कर रहा है। क्योंकि आबादी को बढ़ाने की इच्छा और ज़्यादा-से-ज़्यादा उपभोग की इच्छा, दोनों निकलते एक ही स्त्रोत से हैं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org