पति-पत्नी को साथ रहना ही है, तो ऐसे रहें
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प्रेम तो मूलतः आध्यात्मिक होता है। प्रेम करने की योग्यता तो सिर्फ उसकी है जो मन को समझ गया हो,जो मन की बेचैनी को जान गया हो। मन की बेचैनी का चैन के प्रति खिंचाव ही प्रेम है। इसके अलावा प्रेम की कोई परिभाषा नहीं है। “आचार्य जी, देखिए, आप गलती कर गए न, आपने प्रेम की परिभाषा दे दी। अरे! हमसे पूछिए न, हम आठवीं क्लास के लौंडे हैं लेकिन हम आपको बताए देते हैं कि इश्क वो है जिसे लफ्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता और यह हमें फिल्मों ने और शायरों ने बताया है।” तुम भी मूर्ख! तुम्हारी फिल्में भी मूर्ख! तुम्हारे शायर भी मूर्ख!
बेचैन हो न? चैन माँग रहे हो न? मन पर यही जो लगातार आकर्षण छाया हुआ है कि कहीं पहुँचकर शांति मिल जाए, इसको ही प्रेम कहते हैं।तो प्रेम सार्थक तब हुआ जब आप उस दिशा जाएँ जहाँ वास्तव में शांति मिलती हो।लेकिन प्रकृति और जो प्राकृतिक खिंचाव होता है, जिसको आप प्राकृतिक प्रेम बोल देते हैं, उसका ऐसा कोई इरादा नहीं होता कि आपको शांति मिले। अंतर समझना। प्राकृतिक खिंचाव का नतीजा सिर्फ एक हो सकता है — संतान,और आध्यात्मिक खिंचाव का नतीजा होती है — शांति। इसलिए प्राकृतिक खिंचाव सदा पुरुष का स्त्री से, स्त्री का पुरुष से होता है, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। क्योंकि प्राकृतिक खिंचाव है ही इसीलिए कि या तो रोटी मिल जाए या घर मिल जाए, सुरक्षा मिल जाए या सेक्स मिल जाए — संतान पैदा हो जाए। प्राकृतिक खिंचाव इन वजहों से होता है।
आध्यात्मिक खिंचाव किसलिए होता है? उसकी सिर्फ एक वजह होती है: शांति मिल जाए। तो जिसको कह देते हो न, “अरे, मैं तो कुदरती तौर पर उसकी ओर आकर्षित हूँ” या कि, “देखो, प्रेम तो प्राकृतिक होता है, सब जीवों में होता है”। वो जो प्रेम है, वह प्रेम की बड़ी छोटी परिभाषा है। छोटी भी नहीं, मैं उसको गलत परिभाषा बोलता हूँ। उसे प्रेम कहना ही नहीं चाहिए, वह बस ऐसे ही है,कुछ भी! प्रेम करने के लिए पात्रता चाहिए। प्रेम करने के लिए ऐसी आँखें चाहिए जो दूसरे को कम और खुद को ज़्यादा देखें। तुम्हारी आँखें जाकर दूसरे से ही चिपक गई हैं तो यह प्रेम की निशानी नहीं है, यह तुम्हारे पशु होने की निशानी है। पशु के पास कोई पात्रता नहीं होती, पशु के पास यह काबिलियत ही नहीं होती कि वह खुद को देख सके कि मेरे भीतर चल क्या रहा है? इस खोपड़ी में चल क्या रहा है वास्तव में? इंसान होने की विशिष्टता यह है कि तुम खुद को देख सकते हो, समझ सकते हो। जब तुम खुद को देखोगे, जब तुमको अपने भीतर की गड़बड़ का कारण समझ में आएगा, जब तुम्हें अपनी बेचैनी का सबब समझ में आएगा, तभी तो तुम खिंचोगे न समाधान की ओर और चैन की ओर?समाधान की ओर खिंचना, चैन की ओर बढ़ना, यह प्रेम है।
“जा मारग साहब मिलें, प्रेम कहावे सोय”