पता भी है कौन बचा रहा है तुम्हें?

अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥

नितनेम (शबद हज़ारे)

आचार्य प्रशांत: “अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ”

दो बातें यहाँ पर, साफ़-साफ़ समझो। ‘अंत’ से यहाँ पर आशय, समय में अंत नहीं है। हम ‘अंत’ का मतलब समझते हैं — समय में आगे का कोई बिंदु। अंत से अर्थ है — ऊँचाई। अंत से अर्थ है — आख़िरी। अंत से अर्थ है — बड़े से बड़ा।

“अंति छडाए सोइ,” में ‘अंति’ का मतलब है, आख़िरी। और आख़िरी समय में नहीं है। आख़िरी मतलब — ऊँचे से ऊँची मुक्ति। यहाँ पर अंत वैसे ही है, जैसे — वेदांत। ‘वेदांत’ का अर्थ यह नहीं होता कि वेद ख़त्म हो गए। ‘वेदांत’ का अर्थ होता है — वेदों का शिखर। तो वैसे ही, “अंति छडाए सोइ,” मतलब — ऊँची से ऊँची मुक्ति, ‘वो’ देगा। अब प्रश्न उठता है कि, “कौन देगा?” तो उससे पहले कहा जा रहा है, “अनदिनु साहिबु सेवीऐ”“साहिबु सेवीऐ” से अर्थ है — संसार न सेवीऐ।

‘साहिब’ क्या है? मन जब तक है, तब तक तो वो किसी न किसी से तो जाकर चिपकेगा ही। तो संसार से न चिपके, अतः ‘साहिब’ की ओर जाए। लेकिन आख़िरी कदम पर साहिब भी हट जाते हैं, बस शून्य बचता है। हाँ, शब्दों से तुम्हें खेलना हो, तो कह सकते हो कि, “साहिब ही शून्य है”। फ़िर ठीक है ।

‘साहिब’ शून्य है, ठीक। वो वैसी ही बात है कि — पूर्ण शून्य है, ठीक।

“अनदिनु साहिबु सेवीऐ,” दिन और रात होश में रहो, ताकि संसार में न फंस जाओ, ताकि संसार को गंभीरता से न लेने लगो, ताकि दुःख-सुख दोनों कहीं तुम्हारे मन पर हावी न हो जाएँ, ताकि पसंद और नापसंद तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण न हो जाएँ।

“न पसंद की सेवा कर रहा हूँ, न नापसंद की सेवा कर रहा हूँ, साहिब की सेवा कर रहा हूँ”। अब ‘साहिब’ यहाँ कुछ नहीं है, बस मुक्ति का उपाय हैं ‘साहिब’। भूलना नहीं। क्या हैं? मुक्ति का — (ज़ोर देते हुए) उपाय। ताकि न पसंद में फंसो, न नापसंद में फंसो। न दुःख में फंसो, न सुख में फंसो।

और जब तुम न दुःख में फंसे होते हो, न सुख में फंसे होते हो, उस क्षण मन की जो अवस्था होती है, उसी को क्या कहते हैं? आनंद। अब आनंद की कोई विधायक परिभाषा नहीं हो सकती। कोई पूछे, “आनंद क्या है?” कुछ नहीं है आनंद। ‘आनंद’ की परिभाषा तो सिर्फ़ नकार के तौर पर ही दी जा सकती है।

‘आनंद’ क्या है? जब मन पर न सुख हावी है, न दुःख हावी है, तब मन का जो निर्बोझ होना है, जो ख़ालीपन है, उसे ‘आनंद’ कहते हैं। अब तुम कहो, “आनंद को पकड़ लिया मैंने,” तो किसको पकड़ लिया? जब तक पकड़ने के लिए ‘कुछ’ है, तब तक आनंद कहाँ है? सुख हो सकता है, दुःख भी हो सकता है, आनंद नहीं हो सकता।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org