पढ़ने बैठो तो मन भागता है

किताब जब सामने रहती है तो उसपर फोकस क्यों नहीं कर लेते?

इसलिए नहीं कर लेते क्योंकि उसकी कीमत अपने आप को नहीं बताते हो।

कीमत तो व्यक्ति के परिपेक्ष में ही होती है। तुमने अगर खुद चुनी है चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई, जैसा कि कह रहे हो कि डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करना चाहते हो, या हो सकता है मेवा खाना चाहते हो, अगर खुद चुना है — सेवा चाहे मेवा- तो फिर तुम्हें पता होना चाहिए अपने चुनाव की कीमत का।

कोई चीज़ कीमती है, ज़रूरी है, तभी तो चुनी है। अगर वो ज़रूरी है, तो फिर वो तुम्हारा ध्यान खींचेगी।

किताबों को छोड़ो, सबसे पहले अपने आप से ये मूलभूत सवाल पूछो — “ये चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई मैं कर क्यों रहा हूँ?” खतरनाक सवाल है। क्योंकि इसका ये भी जवाब आ सकता है कि -“मुझे कोई रुचि है नहीं वास्तव में डॉक्टर बनने में। किसी ने मेरे सामने मेवा लटका दिया है, लालच के कारण मैं पढ़े जा रहा हूँ कि डॉक्टर बन जाऊँगा, मेवा खाऊँगा।” ये भी हो सकता है कि चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई ही छोड़नी पड़े। छूटती है तो छूटे, भले ही तीन साल- चार साल जितना भी पढ़ लिया है। ज़िंदगी भर बर्बाद रहोगे, उससे अच्छा है कि अभी छोड़ दो।

लेकिन अगर उत्तर ये आया कि — “वास्तव में बनना है डॉक्टर, और मैं चुन रहा हूँ डॉक्टर बनना,” तो फिर अगली बार किताब से ध्यान भंग नहीं होगा। ज़िम्मेदारी तो लो न अपने ऊपर।

होता क्या है न छात्र जीवन में, तुम्हारा जो साप्ताहिक टाईमटेबल (समय सारणी) है, वो भी कोई और बना देता है। परीक्षाओं का भी कार्यक्रम बाहर से आता…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org