न हम चैतन्य, न हम जड़, बस मध्य के हैं एक भँवर
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवनशक्ति हूँ।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १०, श्लोक २२
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। गीता के सातवें अध्याय में प्रकृति के बारे में समझाने के लिए धन्यवाद। अपरा प्रकृति के आठ पदार्थों के बारे में जानकर अपने भीतर कुछ बदलाव आया। कृपया अब इस विषय को और गहराई से बताइए।
आचार्य प्रशांत: दसवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि "मैं भूतों में चेतना हूँ,” और फिर आगे (प्रश्नकर्ता) अपनी बात कर रही हैं कि “चेतना का अर्थ मेरे लिए है अनुभव करने की एक व्यवस्था है। मेरे अनुसार जो भी अनुभव होता है, वह कितना भी स्थूल और भौतिक हो, वो हो ही इसलिए पाता है क्योंकि उसकी एक इमेज या छवि मन के पर्दे पर बनती है। अगर यह छवि नहीं बने तो अनुभूति नहीं होती, तो यह सूक्ष्म छवि स्थूल पदार्थों से ज़्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी है। इस छवि के उत्तर में पुरानी एकत्रित सूचना, डेटा से कुछ ऊपर आ जाता है, अर्थात् चेतना की सतह पर आ जाता है। यह मेरे स्तर की चेतना है और यह बहुत मशीनी है कंप्यूटर एप्लीकेशन की तरह। श्री कृष्ण किस चेतना की बात कर रहे हैं? कृपया चेतना और पदार्थ के अंतर को और स्पष्ट कीजिए। सप्रेम धन्यवाद, आचार्य जी।”
दसवें ही अध्याय में चेतना के बारे में कुछ बातें स्पष्टता से समझा रहे हैं श्रीकृष्ण। सबसे पहले वे यह कह रहे हैं कि जिसको आप जड़ और चेतन कहते हो, जंगम और स्थावर कहते हो, चर-अचर कहते हो, वो एक हैं, उनको अलग मत जान लेना – ‘भूतों…