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न सामाजिक न पशु

प्रश्नकर्ता: सर, जैसा कि हम जानते हैं — मनुष्य एक सामाजिक पशु है।

आचार्य प्रशांत: अविनाश, किस ने तुमसे कहा कि मनुष्य एक सामाजिक पशु है? क्या जब तुम पैदा हुए थे तब भी तुम्हारे मुंह से निकला था कि मनुष्य एक सामाजिक पशु है? निश्चित रूप से ये तुम्हारी अपनी चेतना से तो नहीं निकल रहा है। कहीं न कहीं तुम्हारे मन में ये बात ठूसी गयी है “मनुष्य एक सामाजिक पशु है।”

निश्चित रूप से ये बात तुम सदा से लेकर तो नहीं चल रहे थे। किसी न किसी मोड़ पर ये बात तुम्हारे मन में डाली गयी है।

लेकिन क्या तुमने खुद जानना चाहा कि ये बात ठीक है या नहीं?

क्या ये तुम्हारी अपनी प्रतीति है? नहीं।

तुमने एक बात को ले लिया और उस आधार पर चले जा रहे हो। कैसी अंधी यात्रा है ये? न तुम सामाजिक होने के अर्थ समझते , न तुम पशु होने के अर्थ समझते और तुम कहते हो “मनुष्य एक सामाजिक पशु है!”

जानते हो हिंदी में पशु को क्या कहा जाता है? पशु। धातु है पाश और पाश का मतलब है बंधन। जो भी गुलाम है वही पशु है। “मनुष्य एक सामाजिक पशु है” कहने का अर्थ ये हुआ कि मनुष्य को पाश में — दासता में- अनिवार्यतः रहना ही होगा, कि दासता मनुष्य का प्रारब्ध है।

सब जवान लोग यहाँ बैठे हो- मानना चाहते हो कि आदमी दासता के लिए है?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो फिर कैसे कह दिया तुमने कि “मनुष्य एक सामाजिक पशु है” और सामाजिक का अर्थ भी क्या है? सब यहाँ बैठे हुए हो, यही समाज है। आदमी से आदमी का जो…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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