न पकड़ना, न छोड़ना
यदा नाहं तदा मोक्षो
यदाहं बन्धनं तदा।
मत्वेति हेलया किंचिन्-
मा गृहाण विमुंच मा॥८- ४॥
“जब तक ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव है तब तक बंधन है, जब ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव नहीं है तब मुक्ति है। यह जानकर न कुछ त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो।”
~ अष्टावक्र गीता
आचार्य प्रशांत: जो सिर्फ़ आख़िरी के चार शब्द हैं उनको ही अगर कोई पकड़ ले तो सब हो जाएगा।
किंचिन-मा ग्रहाण विमुञ्छ मा
पकड़ने की, छोड़ने की बात नहीं करी जा रही है।
प्र: है ही क्या छोड़ने के लिए?
आचार्य: है। अहंकार के लिए बहुत कुछ है। और जो है अगर अहंकार उसे पकड़े हुए है तो तुम ज़बरदस्ती मत करना। पकड़े रहने देना। छोटा बच्चा होता है वो फालतू किसी चीज़ को पकड़ के बिल्कुल सीने से लगा कर घूम रहा होता है। क्या जरूरत है ज़बरदस्ती करने की? तुम बस यह जान जाओ की वह छोटा बच्चा है और तुम बड़े हो। तुम एडल्ट(वयस्क) हो वह चाइल्ड स्टेट(बचपन) है। तो इसी लिए कहा था कि एडल्ट स्टेट(वयस्कता) कोई स्टेट नहीं होती वह पेरेंट(अभिभावक) और चाइल्ड(बच्चा) के पीछे की एक अवस्था है। छोटा बच्चा है वह बिल्कुल चिपका कर के घूम रहा है, उसने पकड़ लिया है एक पत्थर उठा लिया है। एक रस्सी, कई बार होता है उन्हे पसंद आ गई तो आ गई। वह लेकर के घूम रहा है। तुम्हें क्या ज़रूरत है छुड़ा लेने की? कि तू छोड़ इसकी कोई कीमत नहीं है। ले मैं तुझे यह दे रहा हूँ, यह हीरा है इसकी करोड़ों की कीमत है।