न एकाग्रता, न नियंत्रण, मात्र होश

हम सबके मन संस्कारित हैं, हम सबके मन को एक आकार दे दिया गया है; उस सब पर कुछ रंग चढ़ा दिए गए हैं।

जैसे हमें संस्कार दे दिए गए हैं, वैसी ही हमारी एकाग्रता हो गई है।

तुम भूल कर रहे हो अगर तुम सोचते हो कि तुम एकाग्र नहीं हो सकते।

तुम गहरी-से-गहरी एकाग्रता को पाते हो, लेकिन उस एकाग्रता के विषय वही होते हैं, जो तुम्हें तुम्हारे संस्कारों ने सिखाए हैं।

जो तुम्हारे मन ने धारणा बना ली है कि — ‘यह महत्त्वपूर्ण है’ — मन उसी पर एकाग्र हो जाएगा। तुम मन को नहीं रोक पाओगे। लड़ ज़रूर लोगे, और लड़ते तुम लगातार ही रहते हो मन से। उस लड़ाई को तुम कभी जीत नहीं सकते। तुम मन का दमन कर लोगे, अधिक-से-अधिक यही करोगे कि मन कहीं पर भागना चाहता है, और तुम मन के साथ ज़बरदस्ती करके उसको चुप कर दो। ज़बरदस्ती चुप कर भी दिया तो क्या? वो कुलबुलाता रहेगा, और तुम कष्ट में रहोगे।

मन पूरे तरीके से दूषित है। एकाग्रता वो जानता है, पर एकाग्रता के जो उसने विषय चुने हैं वो अपने दूषण से चुने हैं। और उत्सुक हो अगर मन का पूरा शोधन करने में, तो अपने जीवन को सुबह से शाम तक देखो — आज का ही दिन देख लो, चाहे कल का, चाहे बीते हुए कल का, और चाहे परसों का। और देखो कि मन कहाँ-कहाँ जाकर के बैठ जाता था। ऐसा नहीं है कि ये पक्षी कहीं बैठना जानता नहीं है। पर ये सबसे गन्दी डालें चुन रहा है बैठने के लिए।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org